वैसे जीत तो वैकल्पिक मार्ग से भी नहीं हो पाती!

एम हसीन

रुड़की। भाजपा को देशभर में बनियों की पार्टी माना जाता है लेकिन रुड़की को तो नगर भी बनियों का ही माना जाता है; बावजूद इसके कि यह कभी तब का सच रहा होगा जब नगर की आबादी 70-80 हजार और वोट 35-40 हजार होते थे। आज यह महानगर का रूप ले चुका है और यहां पौने दो लाख से ज्यादा वोट हैं। इनमें बनिए उसी अनुपात में ही होंगे जिस अनुपात में देश में हैं। लेकिन भाजपा अभी इस स्थिति को न बदलने को तैयार है और न ही आत्मसात करने को। खासतौर पर, भाजपा के मेयर टिकट पर यहां वैश्यों का दावा माना जाता है। मजेदार बात यह है कि अगर पार्टी इस तस्वीर को बदलना चाहे तो मतदाता नहीं बदलने देता। मसलन, भाजपा ने 2003 में वैश्य समाज से प्रमोद गोयल को टिकट दिया तो मतदाता ने दिनेश कौशिक के रूप में ब्राह्मण नगर प्रमुख चुन लिया। भाजपा ने 2008 में अश्वनी कौशिक के रूप में ब्राह्मण प्रत्याशी दिया तो वोटर ने पंजाबी प्रदीप बत्रा को नगर पालिका अध्यक्ष बना दिया। 2013 में भाजपा ने पंजाबी महेंद्र काला को प्रत्याशी बनाया तो मतदाता ने राजपूत यशपाल राणा को मेयर बना दिया। आखिरकार 2019 में वैश्य पर आकर बात ठहरी जब भाजपा ने भी मयंक गुप्ता के रूप में वैश्य प्रत्याशी दिया और मतदाता ने भी गौरव गोयल के रूप में वैश्य को ही चुना। अब 2024 सामने है और भाजपा को फिर प्रत्याशी चयन करना है। पार्टी के सामने दावेदार बनिए, ब्राह्मण, पंजाबी, राजपूत से लेकर पिछड़े भी हैं। सवाल दो हैं। एक क्या पार्टी वैश्य बिरादरी से बाहर प्रत्याशी चुनेगी? दूसरा, क्या जीतने के लिए प्रत्याशी चुनेगी?

भाजपा के भीतर वैश्य समाज से ही दावेदारों की जो भीड़ चाल देखने में आई है उससे समाज के गंभीर चेहरे कहीं गुम हो गए हैं। अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रचार की भीड़ में राखी चंद्रा जैसा गंभीर चेहरा कहीं गुम हुआ दिखता है; हालांकि वे दावेदार हैं यह उनके होर्डिंग्स बता रहे हैं। मयंक गुप्ता जैसे गंभीर चेहरे की तो कहीं दावेदारी ही नजर नहीं आ रही है। कुछ ऐसे लोग भी टिकट मांग रहे हैं जो वास्तव में अपने परिवार के भीतर से होने वाली किसी दूसरी दावेदारी को नहीं होने देना चाहते। कुछ दावेदार राजनीतिक माफियावाद की जरूरत को पूरा करने की गरज से टिकट मांग रहे हैं तो कुछ अपने ही परिवार की दूसरी दावेदारी को सपोर्ट करने के लिए। इस भीड़ में भाजपा के लिए भी आसान नहीं है वास्तविक दावेदार या नकली दावेदार या मोटिवेटेड दावेदार में फर्क करना। बहरहाल, टिकट चयन का मामला लंबा नहीं खिंचना है। अगले तीन दिन में स्थिति स्पष्ट हो जाने वाली है कि अगर बनिए को टिकट मिलना है तो सौरभ गुप्ता को मिलना है या राकेश गर्ग को। जाहिर है कि पार्टी को जीतना है नहीं यह भी टिकट पर ही तय हो जाएगा।