क्या राष्ट्रीय राजनीति की ओर निर्णायक कदम बढ़ रहे हैं मंगलौर विधायक?
एम हसीन
महज एक साल पहले 2024 का मंगलौर विधानसभा उप चुनाव कांग्रेस के लिए क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने पूरी शिद्दत से लड़ा और बड़ी मुश्किल से जीता था। तब चूंकि मामला उप-चुनाव का था, इसलिए प्रत्याशी नहीं बल्कि सरकार क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के सामने थी और पेंच यह था कि तब कई बड़े कांग्रेस नेता भी उनकी जड़ों में मठ्ठा डाल रहे थे। ऐसी स्थिति में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को, कोई बड़ी बात नहीं कि, हमदर्द भी बहुत मिले थे। इन्हीं हमदर्दों की हमदर्दी के नतीजे के तौर पर वे जीते थे। जीतने के बाद वे विधानसभा के विभिन्न सत्रों में भी शामिल हुए थे। लेकिन पिछले दो सत्रों में वे शामिल नहीं हुए हैं। न तो उन्होंने गैरसैण में आयोजित किए गए मानसून सत्र में हिस्सेदारी की थी और न ही राज्य की स्थापना की रजत जयंती पर देहरादून में आयोजित किए गए विशेष सत्र में वे शामिल हुए थे। यह एक अहम मसला है। अहम इसलिए कि क़ाज़ी निज़ामुद्दीन राज्य के वजूद से शुरू से जुड़े हुए हैं। अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे राज्य की पहली ही विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए थे, जबकि राज्य के पहले प्रोटेम स्पीकर उनके पिता, तत्कालीन लक्सर विधायक, क़ाज़ी मुहीउद्दीन बने थे। सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ? क्या क़ाज़ी निज़ामुद्दीन राज्य की राजनीति में दिलचस्पी घटाकर राष्ट्रीय राजनीति की ओर निर्णायक कदम बढ़ा रहे हैं? क्या 2027 में मंगलौर में भी वे व्यक्तिगत रूप से अपने-आप को पीछे कर सकते हैं? क्या मंगलौर में वे अपने वारिस को चुनाव मैदान में ला सकते हैं?
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि क़ाज़ी निज़ामुद्दीन का राजनीतिक जन्म उत्तराखंड के जन्म के समय ही हुआ था। पिछले 25 न सही, 23 वर्षों से वे सक्रिय राजनीति में हैं। इस अवधि में राज्य के लिए या उनके अपने क्षेत्र के लिए उनकी क्या उपलब्धि रही इस पर जाहिर है कि वे ही कुछ प्रकाश डाल सकते हैं, बशर्त वे “परम नागरिक” को या किसी और संस्थान को इंटरव्यू देना मंजूर करें। उनके इंटरव्यू से ही यह भी स्पष्ट होगा कि उनके नुक्ता-निगाह से उत्तराखंड की स्थिति क्या है! लेकिन पिछले 23 वर्षों की उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियां सार्वजनिक हैं। वे राज्य के अकेले ऐसे विधायक हैं जो कांग्रेस की केंद्र की राजनीति में अपने लगभग सर्वोच्च स्तर तक पहुंच चुके हैं। वे केंद्रीय कांग्रेस में सचिव हैं और दिल्ली प्रदेश के पार्टी प्रभारी हैं। किसी गैर-गांधी के लिए, खड़गे को अपवाद मानकर चलें, कांग्रेस में महासचिव पद सबसे बड़ा हो सकता है और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन इससे महज एक सीढी नीचे हैं। चूंकि वे राहुल गांधी की व्यक्तिगत टीम का हिस्सा हैं, इसलिए यह सीढ़ी अब उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती।
अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब राज्य विधानसभा का विशेष सत्र चल रहा था तब वे बिहार चुनाव में व्यस्त थे, जबकि राज्य कांग्रेस के लगभग सभी बड़े चेहरे देहरादून में ही मौजूद थे। इससे यह अनुमान होता है कि क़ाज़ी निज़ामुद्दीन से कांग्रेस के लिए कुछ बड़े, राष्ट्रीय महत्व के, लक्ष्य हासिल करना अपेक्षित है। ऐसा ही लक्ष्य जैसा दिल्ली का प्रभारी रहते हुए उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में यहां पार्टी के वोट प्रतिशत को बढ़ाकर हासिल किया था। स्वाभाविक है कि कांग्रेस, खासतौर पर राहुल गांधी, की क़ाज़ी निज़ामुद्दीन से अपेक्षाएं इतना अधिक हैं तो क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के लिए भी बाकी सब मामले गौण हो ही जाएं। इनमें राज्य स्थापना दिवस की रजत जयंती का मामला भी शामिल है। देखना यह है उनकी इन उपलब्धियों के चलते मंगलौर की भावी राजनीति पर क्या फर्क पड़ता है!
