जुल्फिकार ठेकेदार के चेहरे पर यतीश्वरानंद से लेकर उबैदुर्रहमान अंसारी तक सब हारे
एम हसीन
मंगलौर। मंगलौर में आदि से अंत तक “तू डाल डाल, मैं पात पात” की राजनीति हुई। सामान्य भाषा में कहा जा सकता है कि “जिसके भाग्य में राजयोग था उसके माथे तिलक लग गया।” लेकिन यह आस्तिक भावना रूप से ही ठीक है। राजनीतिक भावना के रूप में ऐसा नहीं है। ऐसा होता तो जुल्फिकार ठेकेदार यहां नगर पालिका अध्यक्ष निर्वाचित हो गए होते। या फिर, जैसा कि जनमत बोल रहा था, चौधरी इस्लाम चुनाव लड़ कर जीत गए होते। लेकिन ये दोनों ही काम नहीं हुए। यहां मुहीउद्दीन अंसारी अध्यक्ष निर्वाचित हो गए, जिन्होंने नामांकन भले ही दिसंबर महीने में किया था लेकिन जो प्रत्याशी बने 22 जनवरी को दोपहर के बाद, यानि मतदान प्रक्रिया शुरू होने से महज 20 घंटे पहले। यह मंगलौर में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन की मिकनातीसी शख्सियत का कमाल रहा कि उन्होंने जिस शाइस्तगी से अभी जून में ही उप चुनाव में भाजपा को हराया था उसी शाइस्तगी से भाजपा को निकाय चुनाव में भी पराजित कर दिया।
मंगलौर उप चुनाव की सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि यहां निकाय चुनाव में यह हकीकत सामने आ गई कि विधानसभा उप चुनाव में यहां बसपा और भाजपा मिलकर खेल रहे थे। यह गठजोड़ पार्टियों का था या प्रत्याशियों का; यह अभी भी राज है लेकिन उप चुनाव के बाद जिस तरह बसपा ने अपने विधानसभा उप चुनाव के प्रत्याशी उबैदुर्रहमान अंसारी उर्फ मोंटी से दूरी बनाई उससे यह जाहिर हो गया कि असल में क्या हुआ होगा! बहरहाल, उप चुनाव का संघर्ष क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने अपने स्तर पर जीता था, यह साबित हो जाने के बाद निकाय चुनाव महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। लेकिन यह महत्वपूर्ण बनाया कतिपय भाजपाइयों की जिद ने। इस मामले में केंद्रीय भूमिका निभाई यतीश्वरानंद के साथ चल रही लॉबी ने जो कहीं उप चुनाव में पार्टी प्रत्याशी रहे करतार सिंह भड़ाना की खाज में काम कर रहे थे तो कुछ अपनी स्थानीय भीतरी खाज में। सबने मिलकर मंगलौर निकाय के चुनाव को यतीश्वरानंद की नाक का सवाल बनवा दिया, जबकि यह सीट न भाजपा की थी और न ही यहां भाजपा के लिए किसी प्रकार की उम्मीद की जा सकती है। जाहिर है कि इसमें नगर के उन भाजपाईयों ने भी अपनी भूमिका निभाई जो यहां अपने आप चुनाव में जाने की न हैसियत रखते हैं और न ही हौसला। इन सबने पहले उबैदुर्रहमान अंसारी पर डोरे डालकर उन्हें अपने साथ मिलाया और फिर जिन जुल्फिकार ठेकेदार को उबैदुर्रहमान अंसारी चुनाव लड़ा रहे थे, उन्हें ही भाजपा का समर्थन घोषित करवा दिया। कोई बड़ी बात नहीं कि यह समर्थन ही कहीं जुल्फिकार ठेकेदार का वाटर लू न बन गया है। अभी यह रिसर्च का मुद्दा है और रिसर्च होती ही रहेगी।
लेकिन मंगलौर में खेल इससे पहले ही, तभी शुरू हो गया था जब कांग्रेस के घोषित प्रत्याशी चौधरी इस्लाम का नामांकन निरस्त हुआ। इस निरस्तीकरण को लेकर सत्तापक्ष कितना जागरूक था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस पर चौधरी इस्लाम का पीछा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट तक दबाया और अंततः नामांकन को निरस्त कराकर ही दम लिया। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया ने जनता तक यह संदेश पहुंचा दिया कि यहां भाजपा किसी खास एजेंडा के तहत कार्य कर रही है। इसी एजेंडा को लेकर क़ाज़ी निजामुद्दीन शुरू से ही बोल रहे थे। यही कारण है कि जब 22 जनवरी को क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने मुहीउद्दीन अंसारी को प्रत्याशी घोषित किया तो एक ही रात में सूचना जनता तक पहुंच गई और मुहीउद्दीन अंसारी के ही पक्ष में जनमत बन गया। जाहिर है कि यहां की हार भाजपा के लिए बेहद करारी है क्योंकि यहां न केवल सत्ता का भरपूर इस्तेमाल हुआ बल्कि पैसा भी पानी की तरह बहाया गया और जीत फिर भी नहीं मिली। साथ ही यह सवाल खड़ा हो गया कि जो वोट जुल्फिकार ठेकेदार को मिले वो उनके अपने हैं, उबैदुर्रहमान अंसारी के हैं या फिर भाजपा के हैं?