भाजपाइयों को मिल पाएंगी अब सत्ता की रेवड़ियां?
एम हसीन
रुड़की। नवनिर्वाचित मेयर अनीता देवी अग्रवाल के फोटो के साथ होर्डिंस लगाने की भाजपाइयों में होड़ मची है। इनमें अव्वल नंबर नगर विधायक प्रदीप बत्रा का है, लेकिन और लोग भी इस होड़ का हिस्सा हैं। कोई बड़ी बात नहीं स्थानीय भाजपाई चुनाव में अपने योगदान (?) को सार्वजनिक भी कर रहे हैं और हाई लाइट भी। चूंकि इस बार भाजपा ने मेयर पद जीतकर इतिहास कायम किया है, इसलिए भाजपाइयों की यह अपेक्षा भी है कि अब उन्हें सत्ता की रेवड़ियां मिलेंगी। इस मामले में भी अव्वल नंबर प्रदीप बत्रा का ही है। यह तय करना मुश्किल है कि जो लोग प्रदीप बत्रा के कैबिनेट में जाने की चर्चा कर रहे हैं वे बत्रा गुट के लोग हैं या उनके विरोधी, क्योंकि रुड़की के समाज में विरोध भी समर्थन के तौर पर ही करने का रिवाज है। यहां आम लोगों को भले ही भूखा रखकर मारने का रिवाज हो, लेकिन खास लोगों को ज्यादा खिलाकर मारने की परंपरा है। प्रदीप बत्रा खास लोग हैं। अहम बात यह है कि यह चर्चा जारी है कि वे कैबिनेट में जा रहे हैं।
जहां तक सवाल नगर निगम चुनाव का है; इस हकीकत से केवल नगर के लोग ही नहीं बल्कि प्रदेश की समूची राजनीति जानती है कि रुड़की में भाजपा के उच्च स्तरीय नेताओं ने अपने तरीके से, अपनी रणनीति से, अपने संसाधनों से और अपने दम पर लड़ा और जीता है। इस चुनाव में पार्टी ने स्थानीय राजनीति पर न तो बहुत अधिक भरोसा किया और न ही उसे बहुत अधिक तरजीह दी। जिसने रूठ कर घर बैठना चाहा उसे पार्टी ने मनाया नहीं, जिसने आँखें दिखाने की कोशिश की उसे पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया, जिसे भीतरघात का शौक था उसे रोका नहीं गया, अलबत्ता उसे जता दिया गया कि पार्टी उसकी करतूतों से नावाकिफ नहीं है।
दरअसल, स्थानीय निकाय के चुनाव को लेकर रुड़की की राजनीतिक संस्कृति अलग रही है। यहां दोनों प्रमुख पार्टियों-भाजपा और कांग्रेस-के अलावा व अन्य छोटे दल भी चुनाव में शिरकत करते रहे हैं लेकिन हमेशा जीतने का रिवाज निर्दलीय का ही रहा है। जब सुरेश जैन विधायक थे और मयंक गुप्ता के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा होती थी तब भी और अब जबकि प्रदीप बत्रा विधायक हैं और मयंक गुप्ता के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा है तब भी भाजपा-कांग्रेस का एक-एक गुट किसी निर्दलीय को चुनाव लड़ाता और जिताता रहा है। चूंकि हर बार इस प्रतिस्पर्धा को बड़े पार्टी नेताओं का संरक्षण मिलता रहा है, इसलिए बिगड़ा कभी किसी का कुछ नहीं; न कांग्रेसी का और न ही भाजपाई का। लेकिन इस बार चूंकि जीत भाजपा की हुई है इसलिए बात इनाम की हो रही है। किसी भाजपाई को मंत्री पद की उम्मीद है तो किसी को दर्जे की; किसी को किसी संस्था अध्यक्ष बनना है और किसी को किसी बोर्ड का, किसी कॉरपोरेशन का, किसी ऑथोरिटी का सदस्य। कई को निगम में ही मनोनीत पार्षद बनना है। सवाल यही है कि क्या किसी को कुछ मिलेगा?
दरअसल, भाजपा को चुनाव पूर्व ही अनुमान था कि स्थानीय भाजपाई इस बार भी किसी निर्दलीय को जितवाने की कोशिश करेंगे। इसलिए इस बार भाजपा ने अपनी दाढ़ी किसी स्थानीय भाजपाई के हाथ में नहीं दी। चुनाव अभियान के संयोजक पूर्व सांसद डॉ रमेश पोखरियाल निशंक और सह-संयोजक पूर्व कैबिनेट मंत्री यतीश्वरानंद थे। बेशक कुछ भाजपाई अपनी पार्टी निष्ठा के चलते प्रत्याशी के साथ आए तो कुछ को उनकी उपयोगिता के हिसाब से प्रत्याशी या पार्टी ने उनकी “शर्तों” के मुताबिक भी अपने पास बैठाया। कुछ अनुशासन की चाबुक की दहशत में पार्टी के साथ आए तो कुछ दूसरे गुट के नेताओं की खाज में भी नेताओं के इर्द-गिर्द घूमते दिखाई दिए। इसके बावजूद दो बातें सच हैं। एक यह कि जिसे जो करना था किया उसने हर हाल में वही, भले ही बड़े पैमाने पर और खुलेआम नहीं हुआ लेकिन भीतरघात फिर भी हुआ। दूसरी बात, चुनाव पार्टी ने स्थानीय भाजपाई की हदों से बाहर जाकर जीता। इसलिए इस बात की उम्मीद कम ही है कि किसी को मंत्री पद मिलेगा या किसी को किसी और तरीके से उपकृत किया जाएगा। अलबत्ता धंधे करने के मौके सबको पहले भी हासिल थे और आगे भी हासिल रहने की गुंजाइशें रहेंगी।