आखिरकार हाजी सलीम खान ने की मेयर टिकट पर दावेदारी
एम हसीन
रुड़की। जिस समुदाय के मतों की सख्या मेयर निर्वाचन क्षेत्र में कुल मतों का लगभग 25 फीसद हो उसमें एक भी ऐसा चेहरा दिखाई न दे जो मेयर टिकट पर दावा कर सके, तो यह निश्चित रूप से पूरी कम्युनिटी के लिए शर्म की बात है। भला हो हाजी सलीम खान का कि उन्होंने कम्युनिटी को इस शर्मिंदगी से बचा लिया है। उन्होंने अपनी पत्नी बेगम जहां आरा की ओर से कांग्रेस में मेयर टिकट पर दावा किया है। टिकट उन्हें मिलेगा या नहीं यह कोई मुद्दा नहीं है।
2007 तक राज्य विधानसभा का परिसीमन अलग था। तब जिले में नौ विधानसभा सीटें थी और रुड़की क्षेत्र की 5 में से 4 सीटें मुस्लिम बहुल थी। यह अलग बात है कि इनमें से दो, भगवानपुर और लंढौरा, आरक्षित थी। बहरहाल 2007 में समीकरण कुछ ऐसा बना था कि कांग्रेस को रुड़की नगर सीट पर हाजी फुरकान अहमद को अपना टिकट देना पड़ा था। स्वाभाविक रूप से हाजी फुरकान अहमद हारे थे। 2008 में नया परिसीमन हुआ था और कलियर नई सीट बन गई थी। रुड़की की बगल का गांव, जो कि हाजी फुरकान अहमद का गृह गांव है, रामपुर रुड़की से काटकर कलियर क्षेत्र में शामिल कर दिया गया था। इस प्रकार रुड़की में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का सवाल ही खत्म हो गया था। हालांकि यह कड़वा सच है कि इतिहास में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी कभी अपनी बिरादरी का वोट भी लेकर अपनी जीत का समीकरण नहीं बना पाए। हाजी फुरकान अहमद समेत हर प्रत्याशी, अपवादस्वरूप प्रदीप बत्रा को छोड़कर जिन्होंने अपनी बिरादरी पंजाबी को मुस्लिम में जोड़कर जीत का समीकरण बनाया था और यशपाल राणा को छोड़कर, जिन्होंने मुस्लिम वोट में समग्र समाज का वोट जोड़कर प्रभावशाली चुनाव लड़ा था, केवल मुस्लिम में सिमटा। इसके बावजूद कांग्रेस ने कभी दोबारा मुस्लिम चेहरे पर दांव नहीं लगाया; न विधानसभा चुनाव में और न ही निकाय चुनाव में। 2013 में तो नगर की राजनीति इतना दिलचस्प हुई थी कि मेयर टिकट के एकमात्र मुस्लिम दावेदार हाजी सलीम खान का वोट ही वोटर लिस्ट से गायब हो गया था। कोई बड़ी बात नहीं कि कांग्रेस ने रुड़की की अपनी राजनीति को इस प्रकार मुस्लिमलेस बनाया कि यहां पार्टी में टिकट का कोई दावेदार तक नहीं बचा।
कोई बड़ी बात नहीं कि नगर की मुस्लिम राजनीति के लिए यह बेहद निराशा का दौर था। जिसमें महानगर स्तर पर न केवल कोई नया मुस्लिम चेहरा नहीं उभरा बल्कि पुराने चेहरे भी घर पर बैठे रहे। अब 2008 के बाद जाकर हाजी सलीम खान ने ही इस मामले में पहल की और मेयर टिकट पर अपना दावा ठोका। शुक्र है कि कम से कम इतना तो हुआ। टिकट मिलने का मसला तो खैर बड़ा है। इस मामले में मशहूर शायर दया शंकर “नसीम” का यह शेर खासा प्रासंगिक है कि, “लाए उस बुत को इल्तेजा करके, कुफ्र टूटा खुदा खुदा करके।”