अंसारी बिरादरी की एकजुटता पर है यहां बसपा का भी भविष्य
एम हसीन
रुड़की। मंगलौर विधानसभा के पिछले उप-चुनाव में विधानसभा क्षेत्र में बसपा की राजनीति का शीराज़ा समेटने और मंगलौर कस्बे की अंसारी राजनीति को कमज़ोर कर देने के बाद क़ाज़ी निज़ामुद्दीन का ही नहीं बल्कि समूची कांग्रेस का आत्म विश्वास बढ़ा हुआ है। यह इसी से जाहिर है कि पार्टी ने उन्हें उस दिल्ली प्रदेश का प्रभारी बना दिया है जहां अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होना है। बहरहाल, क़ाज़ी निज़ामुद्दीन का यह आत्म विश्वास मंगलौर के निकाय चुनाव को लेकर भी एकतरफा दिखाई दे रहा है तो यह भी बेवजह नहीं है। वजह यह है कि कस्बे में निकाय चुनाव की राजनीति के नाम पर जो कुछ भी है वह क़ाज़ी निजामुद्दीन के खेमे में ही है। मुकाबले में कोई एक ऐसा चेहरा नजर नहीं आ रहा है जिससे यह उम्मीद की जा सके कि वह मुकाबले के लिहाज से शत-प्रतिशत भरोसे का प्रत्याशी है। पिछले उप-चुनाव में मंगलौर नगर में मुकाबले का प्रत्याशी बसपा के उबैदुर्रहमान अंसारी उर्फ मोंटी साबित हुए थे जिन्हें कुल मिले मतों में से आधे नगर में ही मिले थे। यह बेशक बड़ा समर्थन था। लेकिन निकाय चुनाव में भी यह कायम रहा, कोई मुकाबले का प्रभावशाली प्रत्याशी मोंटी कैंप से अगर आया तो ही अंसारी राजनीति के कायम रहने की उम्मीद की जा सकेगी। मोंटी ऐसा कर पाएंगे यह देखने वाली बात होगी। हालांकि फिलहाल दावे से यह भी नहीं कहा जा सकता कि सबकुछ काबू में होने के बावजूद, विपक्षी खेमे में व्यापक बिखराव होने के बावजूद यहां कांग्रेस की राह एकतरफा है। हकीकत यह है कि अपने अंदरूनी हालत के चलते जो कुछ कांग्रेस के पास है उसे संभाल कर रखना उसके लिए भी आसान नहीं होगा।
दरअसल, अगर 2018 के निकाय चुनाव के हिसाब से देखा जाए तो मंगलौर नगर निकाय की राजनीति 6 साल आगे बढ़ चुकी है। इन छह सालों में यहां व्यापक परिवर्तन आए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि निकाय के कल तक के परंपरागत प्रतिस्पर्धी रहे चौधरी इस्लाम और डॉ शमशाद इस बार एक ही खेमे में हैं। हालांकि नामांकन के समय क्या स्थिति रहेगी यह देखने वाली बात होगी, लेकिन कम से कम आज तो यही कहा जा सकता है कि इन दोनों में से कोई एक ही लड़ेगा, क्योंकि दोनों की ही पहली प्राथमिकता कांग्रेस का टिकट और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन का समर्थन है। इसी उम्मीद में दोनों का जन-संपर्क जारी है। अब, अभी से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी एक को विधायक का समर्थन मिला तो दूसरा बगावत कर देगा। अभी तक ऐसी बगावत की परंपरा मंगलौर की नहीं रही है। फिर भी अगर ऐसा हुआ तो अभी से यह नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस प्रत्याशी कौन होगा और बागी कौन होगा! वैसे एक विकल्प यह भी है कि कांग्रेस यहां किसी को टिकट ही न दे और विधायक भी अपने दोनों समर्थकों को अपने ही दम पर चुनाव लड़ने दें। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता! अगर विधायक अपने खेमे को एकजुट रखते हुए किसी को एक को ही चुनाव लड़ने के लिए मना लेते हैं तो सवाल यह है कि मुकाबले का प्रत्याशी कौन होगा? यह वह दूसरा बदलाव है जो मंगलौर में पिछले छः साल में आया है। अगर हाजी सरवत करीम अंसारी जीवित होते तो आज यह सवाल वहां नहीं होता कि मुकाबले का प्रत्याशी कौन होगा! तब स्वाभाविक रूप से दूसरे चेहरे का सवाल नहीं होता क्योंकि तब दूसरा चेहरा हाजी सरवत होते!
दरअसल, हाजी के जीवित रहते मंगलौर विधानसभा की राजनीति कांग्रेस बनाम बसपा होती थी लेकिन मंगलौर नगर की राजनीति क़ाज़ी बनाम हाजी होती थी। यहां भले ही निकाय चुनाव प्रत्याशी चौधरी इस्लाम बनाम डॉ शमशाद होते थे लेकिन चुनाव क़ाज़ी और हाजी की शख्सियत ही तय करती थी। अब जब हाजी नहीं हैं तो यह सवाल नामांकन तक कायम रहेगा कि मुकाबले का प्रत्याशी कौन होगा? इस बिंदु पर मोंटी की भूमिका अहम हो गई है। उनका कदम अगर सही तरीके से उठा तो कोई बड़ी बात नहीं कि यहां की राजनीति दोबारा वहीं पहुंच जाएगी जहां हाजी के जीवनकाल में थी और अगर कदम गलत दिशा में उठा तो मोंटी और बसपा जैसे विधानसभा क्षेत्र में सिमटे हैं, वैसे ही उन्हें नगर में भी अपने वजूद का संघर्ष करना पड़ेगा।