अंतराष्ट्रीय स्तर के शायर का शोहदों के साथ मंच पर दिखना अफसोसनाक
एम हसीन
रुड़की। साबरी उर्स की विभिन्न रस्मों में अफजल मंगलौरी की शिरकत तसव्वुफ की दुनिया के हाई क्लास लोगों, बड़ी दरगाहों के सज्जादानशीनों, गद्दी मशीनों और नामवर सूफियों के साथ दिखाई दी। यह अपेक्षित भी था। कुछ खास क्षेत्रों में रुतबे, रसूख और हैसियत में अफजल मंगलौरी बजाते खुद भी कुछ कम नहीं हैं। वे सूफी नहीं हैं लेकिन साबरी सिलसिले के प्रति उनकी अकीदत सदा दिखाई देती रही है। वे उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं, शायर हैं और अंतरराष्ट्रीय मंचों में अपना कलाम पेश करते हैं। दिल्ली लालकिले के मुशायरे में या डी सी एम के मुशायरे में अपना कलाम पेश करने वाले उत्तराखंड के शायद वे अकेले शायर हैं। आधुनिक उर्दू शायरी को एक निश्चित, महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय दिशा देने वाले नामवर शायर डॉक्टर बशीर बद्र या उसी पीढ़ी के डॉक्टर वसीम बरेलवी और राहत इंदौरी जैसे शायरों के साथ, फिल्मी दुनिया की नामचीन हस्ती जावेद अख्तर के साथ, उर्दू अदब की दुनिया के बेहद मौतबार नाम सूर्यभानु “गुप्त” के साथ बार बार मंच सांझा करने वाले अफजल मंगलौरी की धाक शायरी की दुनिया में करीब 4 दशकों से दिखाई देती आ रही है और में जाती तौर पर इसका गवाह हूं।
मुझे यह देखकर बड़ा अफसोस होता है कि फिर भी वे अपने शहर रुड़की में या मंगलौर में उस सम्मान के योग्य नहीं समझे जाते जिस सम्मान के वे, नो डाउट, अधिकारी हैं। यह खासी ताज्जुब की बात है कि नगर या क्षेत्र के प्रबुद्ध समाज में उनकी गिनती न एक बड़े शायर के रूप में होती है और न ही एक गंभीर व्यक्ति के रूप में। क्या डॉक्टर बशीर बद्र को अपने शहर भोपाल में सम्मान नहीं मिला? क्या डॉक्टर वसीम बरेलवी को बरेली में और राहत इंदौरी को इंदौर में सम्मान नहीं मिला? क्या नवाज देवबंदी की पूछ देवबंद में नहीं है? है। बेशक है। इन शहरों के लोग इस बात पर नाज करते हैं कि शायरी की दुनिया के ये मौतबर नाम उनके शहर का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन क्या ऐसी ही स्थिति अफजल मंगलौरी की मंगलौर में या रुड़की में है? नहीं है। फिर क्यों न अफजल मंगलौरी के मौजूद पर अफसोस जाहिर न किया जाए? क्यों न उनके मुस्तकबिल को लेकर फिक्रमंद न हुआ जाए?
करीब 10 साल पहले जब मैं अफजल मंगलौरी के घर पर उनसे मिलने गया था तब उन्होंने मुझे तमाम अवार्ड दिखाए थे जो हिंदुस्तान और दूसरे मुल्कों में अदब नवाज तंजीमों की तरफ से उन्हें दिए गए थे। उनका एजाज किया गया था। मुझे बड़ा अच्छा लगा था। लेकिन क्या अफजल मंगलौरी साहित्य के किसी सरकारी एजाज की उम्मीद कर सकते हैं? नहीं कर सकते। कारण यह है कि चार दशक की शायरी के बावजूद वे एक इकलौती किताब के खालिक नहीं हैं।
और यही इस बात का प्रमाण है कि उनकी साहित्य साधना का उन्हें क्या लाभ मिल रहा है। और मेरी निगाह में यह बेवजह नहीं है। वजह यह है कि कम से कम अब, अब अफजल मंगलौरी मोटिवेशनल लोगों के बीच में फंक्शन नहीं करते। मैं अफजल मंगलौरी के लिंक्स से अब बहुत वाकिफ नहीं हूं क्योंकि मेरा उनसे मिलना जुलना बहुत कम होता है। वे मुझसे कतरा कर, नजर बचाकर निकल जाते हैं। लेकिन एक दौर के उनके हाई लिंक्स से मैं वाकिफ हूं। राज्यों के राज्यपाल, हाई और सुप्रीम कोर्ट के जज, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, फिल्मी सितारे, देश के नामचीन पत्रकार, तसव्वुफ, तालीम और अदब की दुनिया के तमाम बड़े नाम उनके जाती ताल्लुकात में होते थे। हो सकता है कि यह सब आज भी होता हो। लेकिन जो खबरें मेरे पास अखबारों या न्यूज पोर्टलों के माध्यम से अफजल मंगलौरी के बारे में पहुंचती हैं वे कम से कम मेरा दिल दुखाने वाली होती हैं। साबरी उर्स में ही वे एक तरफ हाई डिग्निटी लोगों के बीच दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ डिग्निटी लेस लोगों के बीच भी दिखाई देते हैं। हो सकता है कि वे कन्फ्यूज्ड हों, हो सकता है कि फ्रस्टेट हों और हो सकता है कि उम्र के छटे दशक में आ जाने के बावजूद उन्हें अभी तक यह अहसास ही न हो कि वे खुद क्या चीज हैं! अगर ऐसा है तो यह अफसोस नाक बात है और शायद उन्हें इस बात का अहसास भी नहीं है कि अपने चेले चपाटों के नाम पर वे राजनीति पर, समाज पर, साहित्य पर, पत्रकारिता पर, तसव्वुफ पर ऐसे लोगों को थोप रहे हैं जिनका इन क्षेत्रों से, इन क्षेत्रों की गरिमा से कोई संबंध ही नहीं है। फिर कम से कम अपने शहर में सम्मान तो वे क्या पाएंगे!