किसी भी स्तर पर प्रतिनिधित्व न मिल पाने के मजबूत हैं कारण
एम हसीन
रुड़की। रुड़की में निकाय का मामला हो, विधानसभा का मामला हो या लोकसभा का; कांग्रेस के पास अगर मुस्लिम समर्थन न ही तो उसके पास कुछ नहीं है। रुड़की के विभिन्न चुनावों में उसकी मुतवातर हार का कारण भी यही है कि उसे केवल मुस्लिम वोट मिलता है या फिर छिटपुट रूप से उन लोगों का मिलता है जिनकी अपनी राजनीति के लिए नगर ने कांग्रेस का कम से कम दूसरे नंबर की पार्टी बने रहना जरूरी है। इसके बावजूद पार्टी यहां टिकट के मामले में मुस्लिमों की दावेदारी के हालात नहीं बनने देती। उन्हें टिकट नहीं देती; न विधानसभा में न और ही निकाय में। केवल इतना ही नहीं; पार्टी किसी भी जाति के साथ मुस्लिमों का ऐसा समीकरण भी नहीं बनने देती जैसा कि एक बार संयोग से 2012 में उसका बन गया था। तब पंजाबी बिरादरी के कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप बत्रा ने नगर में पंजाबी मुस्लिम समीकरण बनाकर विधानसभा चुनाव जीत लिया था। कांग्रेस और प्रदीप बत्रा अगर चाहते तो 2013 में हुए निकाय चुनाव में मुस्लिम प्रत्याशी लाकर इस समीकरण को स्थाई बना सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। दूसरी बात, प्रदीप बत्रा के भाजपा गमन के बाद कांग्रेस ने किसी और पंजाबी चेहरे के माध्यम से इस समीकरण को दोहराने का प्रयास नहीं किया था। मसलन, 2013 के निकाय चुनाव में कांग्रेस ने वैश्य प्रत्याशी दिया था जो कि मुख्य मुकाबले में भी जगह तय नहीं कर पाया था। यही काम पार्टी ने 2002 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण प्रत्याशी के चेहरे पर प्रभावी जनमत बनाने के बावजूद कांग्रेस ने किया था। 2003 के निकाय चुनाव में पार्टी ने भाजपा से लाकर वैश्य बिरादरी का प्रत्याशी लड़ाया था जो कि औंधे मुंह गिरा था। पार्टी के इस इतिहास को मद्दे नजर रखते हुए यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि आसन्न निकाय चुनाव में पार्टी किसी मुस्लिम को अपना प्रत्याशी बनाएगी। हकीकत यह है कि रुड़की में पार्टी, जैसा कि इतिहास रहा है, किसी भी प्रत्याशी को जीतने के लिए टिकट नहीं देगी। और, और मुस्लिम प्रत्याशी को तो वह हारने के लिए भी टिकट नहीं देगी। इसके कई कारण हैं।
मसलन, पार्टी रुड़की में अपनी राजनीति में ही नहीं बल्कि नगर की समूची राजनीति में मुस्लिम समुदाय को लेस करके रखना चाहती है। उदाहरण 2007 का दिया जा सकता है। तब समाजवादी पार्टी के टिकट पर यहां राव शकील खां की विधानसभा चुनाव लड़ने की पूरी तैयारी थी। तब राव शकील खां का पूरा माहौल बना हुआ था और वे चुनाव जीत सकते थे। वे न भी जीतते तो यहां कम से कम मुस्लिम राजनीति का फैक्टर तो जिंदा रहता ही। लेकिन तब कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से मनोहर लाल शर्मा का टिकट काटकर फुरकान अहमद को अपना प्रत्याशी बना दिया था। इसका नतीजा यह हुआ था कि राव शकील खां ने चुनाव लड़ने का इरादा ही छोड़ दिया था। उन्होंने फिर नगर की राजनीति ही नहीं की थी। दूसरी ओर, फुरकान अहमद ने एक चुनाव रुड़की में लड़ा था और 2012 में मैदान प्रदीप बत्रा के लिए खाली करके वे कलियर चले गए थे। यूं रुड़की में मुस्लिम राजनीति की जड़ों में जो पलीता उस समय लगा था वह अब भी सुलग रहा है। रही सही कसर प्रदीप बत्रा ने 2012 में विधायक बनने के बाद कलीम खान को कांग्रेस का महानगर अध्यक्ष बनाकर पूरी कर दी थी। यूं किसी मुस्लिम के टिकट मांगने की गुंजाइश ही खत्म हो गई थी। फिर यूं हुआ कि कलीम खान ने कभी खुद टिकट मांगा नहीं और किसी दूसरे को नगर में उभरने नहीं दिया। अब कलीम खान भी महानगर अध्यक्ष नहीं हैं और कांग्रेस की महानगर राजनीति में कोई और मुस्लिम चेहरा भी नहीं है। अर्थात, कांग्रेस ने नगर की राजनीति को मुस्लिम लेस करने का जो अभियान 2007 में शुरू किया था वह अब आकर मुकम्मल ही गया है।
दरअसल, रुड़की में मुस्लिम राजनीति के लिए कोई रास्ता न बन पाने का असल कारण यह है कि यहां की राजनीति पर सामान्य प्रभाव पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत हैं जो हरिद्वार संसदीय सीट पर चुनाव तो लोकसभा का लड़ते हैं लेकिन उनका लक्ष्य राज्य का मुख्यमंत्री पद होता है। वे अपने चुनावी अभियान के मद्देनजर बहुसंख्यक समुदाय की किसी बिरादरी के साथ मुस्लिम प्लस का वही समीकरण बनाना चाहते हैं जो 2012 में मुस्लिम पंजाबी का बना था। लेकिन वे यह काम भी प्रभावी तरीके से नहीं करना चाहते। मसलन, उन्होंने 2017 में भाजपा के प्रदीप बत्रा को टक्कर देने के लिए भाजपा के पूर्व विधायक वैश्य बिरादरी के सुरेश जैन को मैदान में उतारा था। अब चूंकि भाजपा बनियों की पार्टी है और बनिया भाजपा को छोड़ना नहीं चाहता, इसलिए तब सुरेश जैन की हार का अंतर साढ़े 12 हजार रहा था। हद तो यह है कि 2022 में भाजपा के प्रदीप बत्रा के खिलाफ पंजाबियों तक में चली आंधी में भी अगर कांग्रेस के यशपाल राणा नहीं जीत पाए थे तो इसका कारण यही था कि बनियों ने बत्रा का साथ नहीं छोड़ा था। इसके बावजूद हरीश रावत की अपनी राजनीति है जिसमें रुड़की में किसी मुस्लिम के लिए कोई जगह नहीं है।
तीसरा कारण यह है कि नगर में कोई मुस्लिम अपने समुदाय की राजनीति नहीं करता। अगर कभी ऐसी नौबत आई भी तो मुस्लिम समुदाय के हित की लड़ाई कभी मनोहर लाल शर्मा ने लड़ी, कभी चौधरी सुरेंद्र सिंह ने लड़ी और कभी संजय चौधरी गुड्डू ने लड़ी। इस हकीकत ने मुस्लिम समुदाय की सोच से ही यह गायब कर दिया है कि लोकसभा, विधानसभा और मेयर चुनाव में समुदाय का एकतरफा समर्थन हासिल करने के बावजूद कांग्रेस उसे टिकट के मामले में किसी गिनती में नहीं रखती। रही सही कसर यह विडंबना पूरी कर देती है कि मुस्लिमों पर अगर कभी हरीश रावत का नियंत्रण हिलता भी है तो कॉरपोरेट नियंत्रित धर्मगुरु उन्हें वापिस कांग्रेस के दड़बे में घुसेड़ देता है। यही कारण है कि भले ही अगले चुनाव में भी कांग्रेस हार जाए लेकिन वह किसी मुस्लिम को टिकट देकर हारना पसंद नहीं करेगी।