साख का संकट टालने के लिए कुछ करना जरूरी

एम हसीन

रुड़की। खबर यह है कि एक अधिकारी ने अपने चहेते कुछ पत्रकारों को एक कारोबारी से ऑब्लाइज कराया। बात पत्रकारों को दीपावली का तोहफा दिए जाने की थी और, जैसा कि बताया गया है कि, उपरोक्त अधिकारी ने सम्बंधित पत्रकारों के खातों के बार कोड लेकर एक कारोबारी को दिए और इस कारोबारी ने अपने खाते से इन पत्रकारों को नकदी ट्रांसफर की। यह कारोबारी अपने धंधे की यूनियन का पदाधिकारी भी बताया जाता है। यह अधिकारी रुड़की में अक्सर छापेमारी करता रहता है और संबंधित पत्रकार उसकी छापेमारी की खबरें अपने चैनलों पर खूब जमकर दिखाते हैं। अहम यह है कि उपरोक्त अधिकारी अपनी छापेमारी क्या निरपेक्ष भाव से करता है। खुद पत्रकारों के बीच ही यह सवाल उठ रहा है कि जब एक कारोबारी से ही पत्रकारों को ऑब्लाइज कराया जा रहा है तो फिर संबंधित कारोबारी के प्रतिष्ठान पर तो क्या छापेमारी होगी और जब कारोबारी अधिकारी के कहने पर पत्रकारों तक को ऑब्लाइज कर रहा है तो उसके प्रतिष्ठान पर छापेमारी करने की गुंजाइश तो हमेशा होती होगी। बिना किसी कमी के तो कोई कारोबारी किसी अधिकारी का ऐसा कहना मानेगा नहीं। अब पहला सवाल तो यही है कि क्या उपरोक्त कारोबारी के प्रतिष्ठान पर संबंधित अधिकारी ने कभी छापेमारी की है? दूसरी बात क्या भविष्य में उपरोक्त कारोबारी के प्रतिष्ठान पर छापेमारी की गुंजाइश रह गई है?

सरकारी कार्यवाही के आधार पर या सरकारी सूत्रों के हवाले से मोबाइल पर जो खबरें पत्रकारों द्वारा प्रसारित की जाती हैं, उन्हें देखकर लगता है कि सरकारी अमला दिनरात अवैध धंधे करने वाले लोगों पर लगातार कार्यवाही करते हुए उनपर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है। पत्रकारों के दृष्टिकोण से भी जनता के सामने परोसने के लिए संभवतः इतनी ही जानकारी काफी है। मीडिया का फोकस दो बातों पर बिल्कुल नहीं है। एक, सरकारी अमले ने जिस वर्ग के कारोबारियों पर छापेमारी की उस वर्ग के कुल कितने कारोबारी नगर में काम कर रहे हैं और कितनों पर छापेमारी हुई! दूसरा सवाल, जब कारोबारियों पर लगातार छापेमारी हो रही है तो संबंधित कारोबारियों में निजाम की कोई दहशत क्यों नहीं बैठ रही है? वे अपने धंधों में गलत तरीके अपनाने से क्यों नहीं डर रहे हैं? यह तो खुद छापेमारियों का परिणाम ही बताता आ रहा है कि कारोबारियों के धंधों में कमियां मिलती हैं। उदाहरण के तौर पर, नगर व क्षेत्र में हजारों मेडिकल स्टोर्स हैं, जिन पर ड्रग्स विभाग की छापेमारी लगातार चलती रहती है। छापों के दौरान कमियां भी मिलती हैं, यह खुद विभागीय अधिकारियों के हवाले से आने वाली खबरों में ही बताया जाता है। लेकिन कोई मेडिकल स्टोर का मालिक फिर भी डरता नहीं। फार्मा सेक्टर पर ड्रग विभाग लगातार छापेमारी करता रहता है, नकली या डुप्लीकेट दवाइयों की बड़ी-बड़ी खेप पकड़ी भी जाती हैं, मुकदमे भी कायम होते हैं, कारोबारी जेल भी जाते हैं, इसके बावजूद धंधेबाजी बदस्तूर जारी रहती है, इसका प्रमाण तब मिलता है जब एक छापे के कुछ दिन बाद दूसरा छापा लगता है और दिखता है कि पहले छापे का कोई असर संबंधित कारोबारी पर नहीं पड़ा था।

ऐसे में पत्रकारों से अपेक्षा यह की जाती है कि वे छापामारी करने वाले अधिकारियों का महिमा-मंडन करने की बजाय जनता को यह बताएं कि छापा केवल 10 कारोबारियों पर लगा और 100 कारोबारी अभी भी धड़ल्ले से वैध-अवैध धंधा कर रहे हैं। दअरसल, अधिकारियों की कोशिश “चोर को पकड़ने की नहीं होती, बल्कि पकड़े गए कारोबारी पर छापा मारकर यह दिखाने की रहती है कि चोर पकड़ा जा चुका है।” पत्रकारों की समस्या यह है कि वे अपनी अलग लाइन डिसाइड करने की बजाए अधिकारियों की लाइन को टो करते हैं। जरूरत है कि पत्रकार प्रोफेशनल बनें और अपनी जवाबदेही अधिकारियों के प्रति नहीं बल्कि जनता के प्रति तय करें।