जावेद की “मैंगो पार्टी” में इस बार हरीश रावत नदारद, निज़ामुद्दीन रहे मौजूद
एम हसीन
मंगलौर। कभी कांग्रेस में मंगलौर नगर पालिका अध्यक्ष पद के लिए टिकट के दावेदार रहे जावेद इकबाल की “मैंगो पार्टी” अब खासी शोहरत हासिल कर चुकी है। इस पार्टी की एक समय पर दो विशेषता रही हैं। एक, इसका आयोजन दोपहर के समय होता है और रमजान में भी होता है। दूसरी बात, हाल तक पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इसके स्थाई मुख्य अतिथि का दर्जा अख्तियार कर चुके थे। लेकिन इस बार वे पार्टी से नदारद रहे। इस बार की एक दूसरी दिलचस्प और महत्वपूर्ण बात यह रही कि इस पार्टी में इस बार मुख्य अतिथि मंगलौर विधायक क़ाज़ी निज़ामुद्दीन रहे। हो सकता है कि कभी पहले भी क़ाज़ी निज़ामुद्दीन इस पार्टी का मुख्य अतिथित्व या अतिथित्व स्वीकार करते रहे हों, लेकिन हाल के वर्षों में वे इस पार्टी में नजर नहीं आते रहे हैं, यह पक्का है। इसी कारण जाहिर है कि यह पार्टी इतना ज्यादा आम के मिठास को हाइलाइट नहीं करती रही है जितना ज्यादा कांग्रेस के भीतरी समीकरणों को हाइलाइट करती रही है। और इस बात को भी, कि शायद जावेद इकबाल को अब हरीश रावत से कोई उम्मीद बाकी नहीं रह गई है।
जहां तक जावेद इकबाल की सियासत है तो वे जमीन से जुड़े हुए राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हैं। कहीं थाना-कचहरी में किसी के लिए संघर्ष करते हुए, कभी बिजली-पानी की मांग को लेकर सड़क पर उतरते हुए उन्हें कभी नहीं देखा गया। और समाज सेवा की तो यूं है कि शिक्षा, चिकित्सा आदि संबंधी समाजसेवा तो अब उस रोटरी क्लब की ही प्राथमिकता नहीं रह गई है जिसके जावेद इकबाल सदस्य हैं। यह बेवजह भी नहीं है। ये दोनों ही चीजें अब समाजसेवा के दायरे से निकलकर व्यवसाय के दायरे में आ गई हैं और रुड़की में क्लब्स की सदस्यता के लिए तो व्यवसाय, खासतौर पर शिक्षा और चिकित्सा व्यवसाय, अव्वलतरीन योग्यता है। खुद जावेद इकबाल शिक्षा व्यवसाई हैं। इस सबके बावजूद उनके जैसे अन्य लोगों की ही तरह उन्हें भी मीडिया में “प्रमुख” समाजसेवी लिखा जाता रहा है, यह अलग बात है।
दरअसल, उनकी अहम भूमिका रोजगार देने में है जो वे अपने स्कूल के माध्यम से लोगों को देते हैं और यूं कुछ दर्जन या सौ वोटों पर उनकी इजारेदारी बन जाती है। राजनीतिक जागरूकता होने के कारण पारिवारिक एकता इस रेसिपी पर तड़का लगाती है। यही उनकी राजनीति की बुनियाद है, खासतौर पर मंगलौर जैसे विधासभा क्षेत्र में जहां विधायक चुनाव में हार-जीत उंगलियों पर गिन लिए जाने लायक वोटों से होती रही है। यही कारण है कि वे कभी हरीश रावत की लाइन पकड़ कर क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के लिए अहम साबित होते रहे हैं तो अब सीधे क़ाज़ी निज़ामुद्दीन का दामन पकड़कर ही उनके लिए अहम हो गए हैं। हरीश रावत के संदर्भ में उनकी राजनीति का एक सच यह है कि मुख्यमंत्री रहते हरीश रावत ने उन्हें सत्ता में कुछ नहीं दिया था और प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए संगठन में भी कुछ नहीं दिया था। उन्हें जो मिला था, विजय बहुगुणा से मिला था और वहीं उनका अभी तक अभीष्ट रहा है। ऐसे में उनका हरीश रावत से मोहभंग होना ताज्जुब की बात नहीं है और स्वाभाविक रूप से दूसरा विकल्प तो उनके सामने क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ही हैं। यही वह रास्ता है जिसे उनके लिए पिछले विधानसभा उप-चुनाव में खोलने में महानगर कांग्रेस अध्यक्ष और जावेद इकबाल के रुड़की में पड़ोसी राजेंद्र चौधरी ने, बकौल उन्हीं के, उन्होंने अहम भूमिका अदा की थी। बहरहाल, क़ाज़ी निज़ामुद्दीन की शख्सियत में इतना दम है कि वे मंगलौर में किसी को निर्दलीय लड़ा कर भी नगर पालिका अध्यक्ष बना सकते हैं। ऐसे में अब देखना यह है कि इस नए परिवेश में जावेद इकबाल की इच्छाएं कितना पूरी होती हैं!