प्रचार युद्ध में इतने संसाधन वही झोंक सकता है जिसे हर हाल में चुनाव लड़ना हो

एम हसीन

रुड़की। फिलहाल भाजपा में मेयर टिकट के प्रबल दावेदार माने जा रहे चेरब जैन को अगर पार्टी टिकट न मिला तो भी क्या वे चुनाव लड़ेंगे? भाजपा में अगर वे नाकाम रहे तो क्या कांग्रेस पर साधेंगे निशाना? यदि वहां भी दाल न गली तो क्या वे निर्दलीय मैदान में जायेंगे? उनका निशाना क्या मौजूदा मेयर चुनाव ही है या फिर उनका असली निशाना अगला विधानसभा चुनाव है? उपरोक्त सवाल चेरब जैन को लेकर इसलिए नहीं उठा रहे हैं कि वे कोई अनूठा काम कर रहे हैं, बल्कि इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि उनका अभियान लक्ष्य केंद्रित लगता है। उनके अभियान की आक्रामकता से यह नजर आता है कि यदि उनकी पत्नी मेयर नहीं बनी तो जैसे उनके लिए प्रलय आ जाएगी। दरअसल, जितना इन्वेस्टमेंट वे पिछले 6 महीनों में राजनीति में कर चुके हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि अंतिम बिंदु पर आकर अगर उन्हें टिकट नहीं मिला तो उनका घर वापस लौट जाना मुमकिन नहीं हो पाएगा। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वे कांग्रेस की ओर मूव करेंगे या फिर निर्दलीय चुनाव में जाएंगे?

चेरब जैन को जानने वाले कहते हैं कि उनके मिजाज में आक्रामकता बहुत ज्यादा है। फिर यह दहशत उनके लिए बहुत बड़ी है कि स्कॉलरशिप स्कैम कॉरपोरेट बॉस के तौर पर भी कहीं उनका परमानेंट वाटरलू न बन जाए। कारण यह है कि वह बात अभी खत्म नहीं हुई है और पारिवारिक मामले सेटल हो जाने के बाद अब उन्हें अपने उन बुजुर्गों का आशीर्वाद भी हासिल नहीं है जो कल तक उन्हें सारी बलाओं से बचाकर रखते थे। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कल्पना पहले भी उन्हें सिहराने के लिए काफी रही है। इतिहास गवाह है कि इस आशंका में उन्होंने वे काम भी किए थे जो सामान्य परिस्थितियों में वे नहीं करते। यह उनके ऐन जेल जेल जाने से पहले की बात है जब भाजपा ने चेरब जैन के दादा सुरेश जैन का विधानसभा टिकट काट दिया था। तब तक स्कॉलरशिप स्कैम का खुलासा हो चुका था और फोनिक्स भी स्कैम का हिस्सा माना जा रहा था। यूं किसी विधायक के किसी स्कैम में आरोपित हो जाने के बाद उसका टिकट कट जाना राजनीति में अपने आपमें काफी सजा मानी जाती है। यही जैन के साथ भी होता। अगर चेरब जैन आक्रामक न होते तो इस मामले में भी इतना ही होता। लेकिन प्रभावित पक्ष ने इसे काफी नहीं समझा। इसी कारण इसके कई परिणाम सामने आए थे। पहला यह कि सुरेश जैन ने भाजपा से बगावत कर कांग्रेस का दामन थाम लिया था। लेकिन इससे पहले सुरेश जैन के समर्थकों ने भाजपा के झंडे जलाने का काम किया। फिर सुरेश जैन ने कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ा। बताया जाता है कि उस समय इस पूरे अभियान की अगुवाई चेरब जैन ही कर रहे थे और बेहद आक्रामक तरीके से कर रहे थे।उपरोक्त चर्चा सही है तो इससे यह जाहिर होता है कि वे हार बर्दाश्त नहीं कर पाते। बहरहाल, अब फिर अपने अभियान को लेकर चेरब जैन बेहद आक्रामक हैं।

अहम बातें दो हैं। एक तो यह कि यहां किसी दल के बागी के बतौर निर्दलीय मेयर निर्वाचित होने की परंपरा है और यह अक्सर टिकट के दावेदार को इतना आक्रामक अभियान चलाने पर मजबूर करता ही है कि अगर टिकट कट जाने पर वह निर्दलीय चुनाव लड़े तो उसे जनता की सहानुभूति मिल जाए। दूसरा यह कि चेरब जैन के विषय में कोई यह दावा नहीं कर सकता कि टिकट कटने की स्थिति में वे बगावत नहीं करेंगे। बात केवल इतनी नहीं है कि वे एक बार ऐसा फैसला ले चुके हैं बल्कि यह भी है कि छ: महीने पहले जब उन्होंने अपना अभियान शुरू किया था तो उनके होर्डिंग्स या बयानों से यह जाहिर नहीं हुआ था कि उन्होंने भाजपा की सदस्यता प्राप्त की है। आज भले ही खुद को सनातन संघी करार दे रहे हों लेकिन शुरुआती दौर में उनका अभियान एकल था। उस समय उनका कोई साथी था तो उनका साया यानी उनकी पत्नी मेघा जैन। बाद में वे हरिद्वार विधायक मदन कौशिक के साथ सार्वजनिक हुए और उसके भी बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तथा रुड़की विधायक प्रदीप बत्रा के साथ। ताज्जुब है कि जिन मदन कौशिक को उन्होंने 28 जनवरी को अपने चिकित्सा कैंप का मुख्य अतिथि बनाया था, उन्हीं मदन कौशिक का नन्हा सा फोटो भी उनके द्वारा 5 दिसंबर को लगाए गए होर्डिंग्स पर नहीं था। इससे उनकी निष्ठा की मजबूती साबित होती है। ऐसे में उन्हें लेकर यह आशंका बन रही है कि भाजपा में टिकट न मिला तो वे क्या करेंगे? खासतौर पर इसलिए कि वे प्रचार पर पैसा बहुत खर्च करते दिखाई दे रहे हैं।