इसीलिए कई दावेदार बनाना चाहते हैं अपनी दावेदारी को “प्रबलतम”

एम हसीन

रुड़की। स्थानीय मेयर पद महिला के लिए आरक्षित हो जाने के बाद महानगर में टिकट की दावेदारी को नए आयाम मिलते हुए दिखाई दे रहे हैं। बावजूद इस बात के कि मेयर पद पिछड़े वर्ग या पिछड़े वर्ग की महिला के लिए आरक्षित नहीं हुआ है, टिकट की दावेदारी इससे कहीं प्रभावित नहीं हो रही है। सभी वर्गों के टिकट के दावेदार पूरी ताकत के साथ अपने दावेदारी को पार्टी हाई कमान और जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। यानि हर दावेदार अपनी दावेदारी को महज औपचारिक रूप से नहीं दिखाना चाहता बल्कि वह है साबित कर देना चाहता है कि वही टिकट का वास्तविक अधिकारी है। इससे संदेह पैदा होता है भाजपा-कांग्रेस में कुछ दावेदार कहीं नगर के इतिहास से प्रेरित तो नहीं हैं; कहीं उनका अरमान बतौर निर्दलीय मेयर पद का चुनाव लड़ने का ही तो नहीं है। अगर ऐसा है तो यह सोचा जाना गैर-मुनासिब नहीं होगा कि रुड़की महानगर एक बार फिर निर्दलीय नगर प्रमुख चुनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।

दरअसल, उत्तराखंड बनने के बाद की रुड़की नगर की परंपरा यह है कि यहां कभी भी कोई नगर प्रमुख किसी पार्टी के टिकट पर नहीं चुना गया। दूसरी परंपरा यह है कि किसी भी पार्टी में टिकट का प्रबल दावेदार रहा चेहरा ही बगावत करके मैदान में आया और फिर नगर प्रमुख निर्वाचित हुआ। 2003 से 2019 के बीच यही सब कुछ महानगर रुड़की में होता आया है। अब जबकि आसन्न निकाय चुनाव की तैयारी चल रही है तो दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों में टिकट के दावेदारों की कतार लंबी है। भाजपा क्योंकि राज्य से लेकर केंद्र तक सत्ता में है और रुड़की महानगर को भाजपा का गढ़ माना जाता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से टिकट के दावेदारों की सबसे ज्यादा लंबी कतार यहीं है। लेकिन कांग्रेस में भी हालत बहुत ज्यादा निराशाजनक नहीं हैं। टिकट के यहां भी अगड़े पिछड़े वर्गों के आधा दर्जन से अधिक दावेदार हैं। लेकिन अहमियत इस बात की है कि किसी दावेदार की दावेदारी महज “दावेदारी” है, “प्रबल दावेदारी” है या “प्रबलतम दावेदारी” है।

इन हालात में किसी भी राजनीतिक दल के लिए जितना मुश्किल अपना मेयर प्रत्याशी चयन करना होगा उससे भी ज्यादा मुश्किल अपने प्रत्याशी को जीत दिलाना होगा। गौरतलब यह है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के स्तर पर हिंदुत्व का गढ़ माने जाने वाले रुड़की नगर में निकाय चुनाव की हकीकत कुछ और होती है। तब किसी भी पार्टी की कोई पूछ यहां नहीं होती। मौजूदा चुनाव में भी जिस प्रकार के हालात बन रहे हैं उनकी रूह में, पार्टियों जितने अधिक टिकट के दावेदार होंगे पार्टी का प्रत्याशी बनने वाले चेहरे के उतने ही अधिक विरोधी भी होंगे। यही स्थिति दोनों दलों में अगर रही तो, अभी तक के इतिहास को देखते हुए कहा जा सकता है कि सभी असंतुष्टों की आशाओं का केंद्र बिंदु कोई तीसरा ही बन जाएगा। जिस प्रकार के हालात दिखाई दे रहे हैं उनमें अब सवाल केवल इतना ही है कि वह जो “तीसरा” होगा वह भाजपा का बाकी होगा या फिर कांग्रेस का होगा!