निकाय चुनाव के संदर्भ में उठ रहा सवाल
एम हसीन
रुड़की। रुड़की निकाय प्रमुख पद वैश्य समुदाय का सनातन कब्जा रहा हो, ऐसा नहीं है। कभी यहां मिसेज पूरी और जे एन सिन्हा जैसे गैर-बनिया नगर प्रमुख भी रह चुके हैं। ये ही क्यों, हाल के दशकों में पंडित दिनेश कौशिक, पंजाबी प्रदीप बत्रा और राजपूत यशपाल राणा के रूप में भी यहां गैर-बनिया नगर प्रमुख रहे हैं। यह अलग बात है कि नगर को कमांड करने की वैश्यों की तड़प कभी कम नहीं हुई। इस तड़प का ही परिणाम है कि बनियों ने पंजाबियों के साथ एक पद का समझौता करने से भी गुरेज नहीं किया यानि विधायक पंजाबी और मेयर बनिया। इसी के नतीजे के तौर 15 साल बाद जाकर गौरव गोयल के रूप में वैश्य नगर प्रमुख बनने में कामयाब रहे थे; हालांकि ऐसा हुआ तभी था जब 2012 में वैश्य सुरेश जैन के भी विधायक हारने के बाद 7 साल तक वैश्य समुदाय नगर में बे यारो-मददगार रहा था। फिर पंजाबी-वैश्य समीकरण बना था और वैश्य प्रभुत्व लौटा था। कमाल की बात यह है कि पौने दो लाख मतदाताओं वाले निकाय में वैश्यों-पंजाबियों की कुल तादाद मुश्किल से 15 हजार होगी और इन दोनों की सामूहिक तादाद से कहीं ज्यादा तादाद ब्राह्मणों की है। बहरहाल, ब्राह्मण को पंजाबी-समीकरण से कोई आपत्ति 2022 में नहीं दिखाई दी। शायद ब्राह्मण इस बात से संतुष्ट हैं कि उन्हें मदन कौशिक के रूप में भाजपा ने एक दमदार विधायक दिया हुआ है और 2022 तक तो डॉ रमेश पोखरियाल निशंक के रूप में सांसद भी ब्राह्मण ही थे; हालांकि 2024 में स्थिति बदली और त्रिवेंद्र सिंह रावत के रूप में सांसद राजपूत समुदाय के खाते में गया।
अब निकाय चुनाव सामने है और स्थिति यह है कि रुड़की के वर्तमान विधायक प्रदीप बत्रा पंजाबी हैं। 2022 में उनका हारना निश्चित माना जा रहा था। लेकिन वे जीत गए थे, बावजूद इस सच्चाई के जीत गए थे कि उनका मुकाबला किसी गई-गुजरी जाति के प्रत्याशी से नहीं बल्कि राजपूत जाति के, वो भी पूर्व मेयर प्रत्याशी, यशपाल राणा के साथ हुआ था। इसी प्रकार 2019 के निकाय चुनाव में गौरव गोयल निर्वाचित हुए थे, जो कि वैश्य हैं। उनके सामने भी प्रत्याशी किसी छोटी मानी जाने वाली बिरादरी से नहीं बल्कि राजपूत बिरादरी के ही कांग्रेस प्रत्याशी रेशु राणा थे। उल्लेखनीय बात यह है कि प्रदीप बत्रा को तो फिर भी भाजपा की बैक हासिल थी क्योंकि वे पार्टी प्रत्याशी थे; गौरव गोयल तो निर्दलीय ही नहीं बल्कि भाजपा के बागी भी थे। उपरोक्त उदाहरण से यह साबित होता है कि रुड़की की राजनीति की अव्वल तरीन प्राथमिकता नगर के दोनों प्रमुख पदों पर केवल पंजाबी और बनिया प्रत्याशी ही मंजूर होता है। ऐसे में अब सवाल यह है कि क्या अगले निकाय चुनाव में यह स्थिति बदलेगी? क्या कोई गैर वैश्य मेयर बन पाएगा?
जहां तक सवाल भाजपा-कांग्रेस का है तो ये दोनों दल तो नगर की पंजाबी-वैश्य समीकरण के सामने हारते आए हैं। इसलिए अगर इन दोनों या इनमें से किसी एक राजनीतिक दल या उसके किसी बड़े नेता को या दोनों दलों के बड़े नेताओं को अगर यहां कोई गैर-वैश्य को मेयर बनाना है; किसी पिछड़े, किसी दलित को मेयर बनाना है तो विकल्प एक बार फिर केवल निर्दलीय का ही बचता है। रुड़की के इतिहास में मिसेज पूरी के बाद किसी महिला के नाम नगर प्रमुख की नुमाइंदगी दर्ज नहीं है। अगर किसी सामान्य, पिछड़ा या दलित महिला को मेयर बनाना है तो भी विकल्प निर्दलीय का ही बचता है। देखना दिलचस्प होगा कि इस बारे में उच्च स्तरीय राजनीति क्या निर्णय लेती है!
