बेढब टिकट दिया तो फिर निर्दलीय का समीकरण

एम हसीन

रुड़की। निकाय चुनाव की चर्चा के दौर में अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच यह सवाल बेचैनी का कारण बन रहा है कि एक बार फिर खुद को बेहद मजबूत दिखाने की कोशिश कर रही कांग्रेस क्या इस बार जीतने के लिए चुनाव लड़ेगी या एक बार फिर उसका अभियान हारने के लिए और यूं अपने समर्थक मतदाता को राजनीतिक हाशिए पर धकेलने के लिए, उसे मुख्य धारा से बाहर करने के लिए, होगा! सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि उत्तराखंड बनने के बाद किसी भी चुनाव में अभी तक कांग्रेस नगर में केवल एक बार विजयी हुई है। इस विषय में राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि “केवल एक बार कांग्रेस ने सही समीकरण बनाकर टिकट दिया और जीत हासिल की। एक बार के अलावा कभी भी टिकट का सही समीकरण नहीं बनाया गया।”

जैसा कि सब जानते हैं कि रुड़की में मुख्य रूप से कांग्रेस का वोट बैंक मुस्लिम है। इसमें किसी भी जाति को जोड़कर कांग्रेस जीत का समीकरण बना सकती है। पार्टी ने 2002 के विधानसभा और 2008 के निकाय चुनाव में ब्राह्मण प्रत्याशी देकर ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश की थी। लेकिन दोनों ही बार प्रत्याशी अपने समाज को नहीं जोड़ पाया था। इसी प्रकार पार्टी ने निकाय चुनाव में 2003 में राजेश गर्ग व 2013 में राम अग्रवाल और विधानसभा चुनाव में 2017 में सुरेश जैन को टिकट देकर बनिया-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश की थी। लेकिन तब भी गर्ग-अग्रवाल-जैन बनियों को नहीं जोड़ पाए थे। तीनों ही प्रत्याशी चुनाव लड़ना तो दूर, चुनाव में ठहर भी नहीं पाए थे। जैसा चुनाव 2002 में मनोहर लाल शर्मा ने या 2019 व 2022 में यशपाल राणा ने लड़ा था, ऐसा चुनाव न 2008 में दिनेश कौशिक लड़ पाए थे और न बाद के तीनों बनिया प्रत्याशी। इससे यह साबित हुआ था कि ब्राह्मण और वैश्य विधायक और निकाय प्रमुख बनना तो चाहते हैं लेकिन कांग्रेस के टिकट पर नहीं।

दूसरी ओर, पार्टी ने 2012 में प्रदीप बत्रा को टिकट देकर पंजाबी-मुस्लिम समीकरण बनाया था जो कामयाब हुआ था। जानकार लोगों का कहना है कि यह समीकरण आज भी कामयाब हो सकता है। आज भी कांग्रेस अगर रुड़की में किसी प्रभावशाली पंजाबी को टिकट दे तो वह अपनी मुसलसल हार के रिकॉर्ड को तोड़ सकती है। शायद यही कारण है कि पिछले ढाई दशकों में नगर की राजनीति ने जितनी ताकत मुस्लिम चेहरों को खत्म करने में लगाई है उतनी ही ताकत पंजाबी चेहरों को खत्म करने में लगाई है। फिर भी, आज भी कांग्रेस भाजपा में कुछ तो पंजाबी चेहरे हैं ही, मसलन कांग्रेस के हंसराज सचदेवा या उनके पुत्र कुणाल सचदेवा। लेकिन किसी स्तर पर लगता नहीं कि सचदेवा को संरक्षण दिया जा रहा है।

वैसे 2019 के बाद से ही राजपूत समाज के पूर्व मेयर यशपाल राणा कांग्रेस का एक मजबूत चेहरा साबित होते रहे हैं। उन्होंने 2019 में मेयर का और 2022 में विधानसभा का बेहद मजबूत चुनाव लड़ा था। लेकिन यह सवाल यशपाल राणा के सामने भी है कि वे कब तक कांग्रेस को जिंदा रखने के लिए अपना अस्तित्व होम करते रहेंगे; कब तक हार के लिए चुनाव लड़ते रहेंगे। शायद यही कारण है कि इस बार यशपाल राणा का अभियान एक बार फिर निर्दलीय का दिखाई दे रहा है। वे एक बार फिर 2013 के उसी समीकरण को बनाना चाहते हैं जिसने उन्हें मेयर बनाया था। हालांकि इस बारे में उन्होंने अधिकृत रूप से कुछ नहीं कहा है। लेकिन शायद यही वह संभावना है जो कांग्रेस के समर्थक मतदाता वर्ग को बेचैन कर रही है। जाहिर है कि अगर टिकट के मामले में कांग्रेस ने एक बार फिर परंपरागत चाल चली, कोई प्रभावशाली समीकरण नहीं बनाया, तो पार्टी के समर्थक मतदाता के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं रहेगा कि वह फिर निर्दलीय को ही चुने।