लेकिन, “हसीनों से अहद-ए-वफ़ा चाहते हो, बड़े नासमझ हो यह क्या चाहते हो”
एम हसीन
पहले पत्रकार-सामाजिक कार्यकर्ता और फिर एक राजनीतिक चेहरे के रूप में 40 वर्षों के करीब सार्वजनिक जीवन जी चुके सुभाष सैनी के विषय में एक बात बेहद उल्लेखनीय ढंग से कही जा सकती है कि वे अपनी सोच को लेकर पूरे तौर पर स्पष्ट हैं। यह कमाल है कि उनके मुद्दों में तमाम प्रकार के विरोधाभास हैं। इसके बावजूद वे उन्हें पूरी साफगोयी के साथ समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। हौसलामंदी की बात है कि वे अपने मुद्दों पर जन समर्थन चाहते हैं। उनकी हौसलामंदी अपनी जगह लेकिन यह हकीकत भी तो है कि “वफ़ा हसीनों में होती।”
मसलन, वे ऐसे राजनीतिक दल, कांग्रेस, की राजनीति करते हैं जहां दशकों तक पहले अपने कार्यकर्ता की सोच को तबाह किया जाता है, उसकी क्षमताओं का विनाश किया जाता है, उसे अपनी संस्कृति घोट कर पिलाई जाती है, उससे बरसों बरस दरी बिछवाई जाती और फिर अगर उसमें सांस बाकी रह जाए तो उसे किसी गिनती में रखा जाता है। या फिर किसी नेता का वारिस या कोई धन कुबेर यहां ओवरनाइट सम्मान हासिल कर पाता है। कांग्रेस में सम्मान हासिल करने का एक रास्ता संघ से भी आता है।
बरसों अपने गैर-राजनीतिक संगठन लोकतांत्रिक जनमोर्चा के दम पर राजनीति करने के बाद कुछ ही साल पहले कांग्रेस में शामिल हुए सुभाष सैनी की स्पष्ट सोच का ही नतीजा है कि वे कार्यकर्ता के रूप में नहीं बल्कि नेता के रूप में पार्टी में शामिल हुए हैं और अब पार्टी से मेयर का टिकट चाहते हैं जबकि न वे किसी नेता के वारिस हैं, न धनपति हैं, न संघ से आए हैं। सबसे अहम यह है कि वे अपनी सोच कांग्रेस में साथ लाए हैं और लोकतांत्रिक जनमोर्चा भी। वे कांग्रेस के मंचों पर भाषण देते हैं और खुद कोई कार्यक्रम करें तो लाइक-माइंडेड गैर-कांग्रेसियों के साथ साथ कांग्रेसियों को भी बुलाते हैं लेकिन कार्यक्रम कांग्रेसी नेता के रूप में लोकतांत्रिक जनमोर्चा के कोलेबोरेशन से ही करते हैं, भले ही इससे कुछ कांग्रेसी सहमत न होते हों। वे खुद को कांग्रेसी कहते हैं क्योंकि उनकी निगाह में कांग्रेस सेकुलर पार्टी हैं। वे सेकुलर राजनीति को अपनी सैनी बिरादरी के राजनीतिक उत्थान के लिए बुनियादी तत्व मानते हैं। बावजूद इसके कि सैनी बिरादरी भाजपा की राजनीति की बुनियाद का पत्थर है और हिंदुत्व का फ्रंट है। यह विरोधाभासी सपना सुभाष सैनी ही देख सकते हैं कि सेक्युलरिज्म की सोच के तहत कांग्रेस इसलिए उन्हें मेयर का या विधानसभा का टिकट दे क्योंकि रुड़की में एक जाति के रूप में सैनी सबसे बड़ा समाज है। और मुसलमान चूंकि सबसे बड़ा समुदाय है इसलिए मुसलमान सेक्युलरिज्म की जरूरत के तहत उन्हें वोट दे। यह ध्यान रखने की बात है कि सुभाष सैनी जातीय राजनीति के रुड़की में सबसे बड़े झंडाबरदार हैं और कमाल है कि सेक्युलरिज्म के भी। वे मानते हैं कि यह विरोधाभास है लेकिन यह भी कहते हैं कि यह व्यवहारिक मामला है। जब कांग्रेस ने सैनी को टिकट दिया था और मुसलमान ने सैनी को वोट दिया था तो ही कांग्रेस जीत पाई थी और तो ही सेक्युलरिज्म की जीत हुई थी और तो ही सैनी वैभव कायम हुआ था, जो बिरादरी को भाजपा में सबकुछ हासिल होने के बावजूद फिलहाल कायम नहीं है। भाजपा में सैनी शासित समाज है और मुसलमान सामाजिक रूप से उपेक्षित समाज है। कांग्रेस अगर सैनी को टिकट दे तो सैनी शासक होगा और मुसलमान सह शासक।
अपने इन विचारों के साथ सुभाष सैनी राजनीतिक व्यक्ति कम और राजनीतिक विचारक ज्यादा लगते हैं। लेकिन यह भी सच है कि वे इन सारी चीजों को साथ लेकर कांग्रेस की राजनीति कर रहे हैं। वे खुद भी मानते हैं कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। इसलिए वे अपने मुद्दों पर कांग्रेस के बीच और सहमति और जनता के बीच समर्थन गोड सकते हैं, गोड रहे हैं और गोड कर रहेंगे।