अगली बार के लिए भी बिछाई जा रही तीसरे विकल्प की बिसात
एम हसीन
हरिद्वार। जिला हरिद्वार की राजनीति में संक्रमण का दौर अभी जारी रहने वाला है। यह पार्टी के प्रबंधक ही तय कर चुके हैं कि 2002 में दो विधानसभा सीटों के साथ जिले की राजनीति में वापसी करने वाली बहुजन समाज पार्टी अब बस यहां इतिहास की बात बन जाए, लेकिन भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की राजनीति के भीतरी समीकरण इस बात की इजाजत अभी नहीं दे रहे हैं कि जिले की राजनीति दो ध्रुवीय हो जाए। हालात का इशारा यह है कि यहां तीसरा ध्रुव कायम रहेगा, यह अलग बात है कि उसकी सूरत बदल जाए। इसका एक कारण यह भी है कि यहां के शक्तिशाली, महत्वकांक्षी विधायक हमेशा विधायक मात्र बने रहने की राजनीति ही नहीं करना चाहते। वे कैबिनेट में भी अपने लिए जगह चाहते हैं और निर्णायक पद पर भी अपना दावा करना चाहते हैं। इसी सोच के तहत जिले ने 2022 में बसपा को रि-एस्टीब्लिश किया था। लेकिन बात तब बन नहीं पाई थी। 2027 में बात बन सके, अब बिसात इसके तहत बिछाई जा रही है। अब इंतजार केवल निकाय चुनाव का है। उसके बाद बिसात के मोहरों के चेहरे भी सार्वजनिक हो सकते हैं।
हरिद्वार जिले की राजनीति दशकों से अपनी ऐसी चाल चलती आई है जिसका संबंध पहाड़ की मुख्य धारा की राजनीति से आमतौर पर नहीं होता। अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 के विधानसभा चुनाव में जब समूचे पहाड़ ने कांग्रेस का भी सूपड़ा साफ करते हुए एकतरफा सभी 17 सीटें भाजपा को दे दी थी, तब जिला हरिद्वार की अपनी तीनों सीटें भाजपा हार गई थी। तब एक बार फिर कांग्रेस चुनाव में कहीं नजर नहीं आई थी। तब हरिद्वार और रुड़की सीट समाजवादी पार्टी ने जीती थी जबकि लक्सर सीट बसपा ने। 2000 में उत्तराखंड गठन हो जाने बाद ये तीन सीटें बढ़कर 9 हो गई थी लेकिन तब भाजपा केवल तीन सीटें जीत पाई थी। कांग्रेस और सपा को जीरो सीटें मिली थी और बसपा ने 5 सीटें जीती थी। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी। इससे एक हद तक सत्ता का संतुलन बना था जो 2017 तक कायम रहा था।
लेकिन 2017 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी ने जिले की 11 में से आठ सीटें जीती थी और बाकी तीन सीटें कांग्रेस के पास चली गई थी। इस प्रकार जिले में तीसरे विकल्प का वजूद ही खत्म हो गया था। लेकिन 2022 के चुनाव तक स्थितियां फिर बदल गई थी और भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर जिले में तीन सीटों पर अटक गई थी, जबकि कांग्रेस की सीटें बढ़कर पांच हो गई थी। बाकी तीन में से दो बहुजन समाज पार्टी ने जीती थी और एक निर्दलीय के खाते में गई थी। तब सबसे उल्लेखनीय तत्व यह उभरा था कि जिले में नरेंद्र मोदी फैक्टर जीरो साबित हुआ था। तब तीन सीटों पर भी भारतीय जनता पार्टी नहीं बल्कि उसके प्रत्याशी अपने चेहरे पर जीते थे।
अब 2027 की राजनीति आकार ले रही है। कांग्रेस के भीतर जिस प्रकार के हालात बने हुए हैं वे यही इशारा दे रहे हैं कि 10 साल की भाजपा सरकार की एंटी इनकंबेंसी का तो वह लाभ उठाना ही नहीं चाहती। लग चाहे कुछ भी रहा हो लेकिन स्थितियों का विश्लेषण यह बताता है कि कांग्रेस में भीतरी संघर्ष बहुत गहरा है और सत्ता की महत्वकांक्षा बहुत घनी। कमोबेश यही स्थिति भारतीय जनता पार्टी की है। वहां भी भीतरी संघर्ष हर दिन और और और तीखा होता जा रहा है। बहुजन समाज पार्टी के प्रबंधकों के हालात से लगता है कि अपने एक विधायक के दिवंगत होने के बाद हुए उप चुनाव में एक सीट तो गंवा ही चुके हैं, दूसरी सीट को भी उनका मौजूदा विधायक खुद अपने दम पर बचा ले तो बचा ले, पार्टी की ऐसी कोई कोशिश नहीं। दूसरा मसला यह है कि पार्टी विधायक की भी अपनी राजनीति, अपनी मजबूरी और अपनी महत्वकांक्षा है। ऐसे हालात में महसूस यह हो रहा है कि भाजपा, कांग्रेस और बसपा का भीतरी संघर्ष फिर एक ऐसे तीसरे विकल्प को आकार दे रहा है जो समय आने पर या जरूरत पड़ने पर बसपा की जगह ले सके। सतह पर फिलहाल चाहे कुछ भी नजर न आ रहा हो, लेकिन परदे के नीचे चीज़ें साफ साफ आकार लेती दिखाई दे रही हैं। साफ दिख रहा है कि 11 सीटों पर एक नई बिसात बिछाने की तैयारियां जोर शोर से जारी हैं। मोहरे तय किए जा रहे हैं।