उस टेलीफोनिक काल ने मुझे यौमे-आजादी सेलिब्रेट करने का एक अतिरिक्त मौका दे दिया

एम हसीन

उन कांग्रेसी नेता से मेरी यह सनातन शिकायत रही है कि वे मुझे अपने किसी कार्यक्रम का निमंत्रण नहीं देते, कोई विज्ञप्ति जारी नहीं करते। कोई बात अगर पूछनी हो तो फोन नहीं उठाते। लगा कि उन्हें आदत नहीं होगी फोन उठाने की। लेकिन स्वतंत्रता दिवस आया तो अहसास हुआ कि ऐसा नहीं है। वे तो मुझसे अपने दिल में कोई रंजिश, कोई खुंदक लिए बैठे हैं और इंतेज़ार कर रहे हैं कि मैं फोन करूं तो वे अपनी ताकत का, जो मेरी निगाह में तो उनकी कोई ताकत ही नहीं, मुझे अहसास कराएं। मैने तो दिमाग पर बिना बोझ लिए यह सोचकर 14 अगस्त को उन्हें फोन किया था कि फोन उठाएंगे तो हैं नहीं। लेकिन अप्रत्याशित रूप से उन्होंने फोन उठाया जो उनकी अधीरता का प्रमाण था। इसके बाद उन्होंने जो मेरी क्लास ली तो तौबा भली। उन्होंने मेरे अखबार या पोर्टल पर कभी छपी किसी एक खबर का हवाला दिया और मुझे पत्रकारिता सिखाई। मुझे बताया कि कोई खबर मैंने “कैसे” लिखी और “कैसे” मुझे लिखनी चाहिए थी। उनका साफ मंतव्य खबर लिखे जाने को लेकर मुझे जलील करने का था जिसके लिए वे तभी से तैयार बैठे थे जब कभी खबर छपी होगी। और उन्होंने ऐसा किया। यह भी कमाल है कि उन्होंने केवल अपनी कही और मुझे इस बात का अहसास कराया कि अखबार खबर से नहीं चलता बल्कि उसी “विज्ञापन” से चलता है जो मांगने के लिए मैंने उन्हें फोन किया था।

मुझे मेरी गलती का अहसास हुआ। गलती यह नहीं कि मैंने उनकी मंशानुरूप खबर क्यों नहीं लिखी थी, बल्कि गलती यह कि मैं ने 14 अगस्त को उन्हें फोन क्यों किया। मुझे फोन नहीं करना चाहिए था। लेकिन ऐसा क्योंकर होता! मुझे तो उन नेताजी से कोई खुंदक नहीं थी। मुझे तो यह भी याद नहीं था कि जिस खबर की वे बात कर रहे थे वह खबर मैं ने कब लिखी थी। अगर खबर लिखते समय मेरे मन में कोई दुर्भावना होती तो मुझे यह याद भी होता, याद होता तो फिर मैं यह भी याद रखता कि मुझे उन्हें फोन नहीं करना है। फिर भी मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। साथ ही उस गलती का भी अहसास हुआ जो मैंने बुनियादी तौर पर की थी। मैं अपनी निगाह में समर्पित पत्रकार हूं और हमेशा नवाचार के विषय में भी सोचता रहता हूं। बात 2017 के विधानसभा चुनाव की है, जब नगर विधायक प्रदीप बत्रा भाजपा में जाकर टिकट के दावेदार बन गए थे और कांग्रेस में वेकेंसी थी। तब इस नौजवान पर मेरी नजर गई थी और मैंने ही अपनी खबर में पहली बार उसे इंट्रोड्यूस किया था। तब राजनीतिक दलालों को इस नौजवान में कोई संभावना नहीं दिखाई दी थी, इसलिए मेरी एकल मुहिम को दबा दिया गया था। 2019 के मेयर चुनाव तक भी ऐसा ही रहा था। लेकिन 2022 तक हालात में बदलाव आ गया था। यह नौजवान कांग्रेस टिकट की दौड़ में बहुत आगे आ गया था, टिकट हालांकि यह नहीं ले पाया था।

पिछले आठ साल के इतिहास में मुझे कई बार इस बात का अहसास हुआ था कि बतौर भावी जनप्रतिनिधि इस नौजवान को आगे बढ़ाने के मामले में मुझसे भारी गलती हुई है। मुझे कई बार इस बात का अहसास हुआ कि इस नौजवान के भीतर सहिष्णुता नहीं है और किसी बात को सुनने की कोई सलाहियत तो इसके अंदर बिल्कुल नहीं है। इसने उस चीज को सबसे पहले सीखा है जो इसे सीखनी ही नहीं चाहिए थी, वह चीज है चाटुकारिता पसंदी। फिर उसका घमंड और बड़बोलापन तो कमाल का है। उसका यह अहसास ताज्जुब की बात है कि जब उसने समाज के एक वर्ग को अपने-आप से प्रभावित कर लिया है तो पूरे आज को प्रभावित कर लिया है। लेकिन जब तक मुझे इन बातों का अहसास हुआ तब तक बात काफी आगे बढ़ चुकी थी। उसे संवारा नहीं जा सकता था। यही कारण है कि मैं उसे लेकर अपनी तरफ से भी अब कुछ लिखता नहीं। विज्ञप्ति वह खुद ही मुझे नहीं भेजता। तो बात खत्म सी है क्योंकि यह तो उसका भ्रम ही है कि सिर्फ विज्ञापन के लिए मैं उसे ढो सकता हूं। विज्ञापन के लिए ढोता तो मैं उसे ही, यानी प्रदीप बत्रा को ही, ढो लेता जिसके विकल्प के तौर पर मैं उसे आगे बढ़ा रहा था। आखिर मूल, यानि प्रदीप बत्रा, तो मूल ही है। उसकी क्षमताएं भी अधिक हैं, उसके संसाधन भी अधिक हैं। मैं उसे ही ढो लेता। लेकिन वह इसी बात को नहीं समझा कि अखबार चले या न चले, विज्ञापन न मेरा अभीष्ट कभी था और न कभी होगा। अच्छी बात यह है कि स्वतंत्रता दिवस आया तो मुझे भी इस बात का ख्याल आया। मतलब यह कि स्वतंत्रता दिवस को सेलिब्रेट करने के लिए मेरे पास एक अतिरिक्त कारण भी मौजूद है। कारण यह उसका यह दर्द मेरी जानकारी में आया है कि उसे मेरी खबर से तकलीफ हुई। इससे यह साबित हुआ कि बात कही जाती है तो अपना असर दिखाती है।