समापन की ओर शिव को समर्पित दो सप्ताह तक चलने वाली तीर्थ यात्रा
एम हसीन
कांवड़ मेला 2025 अपने समापन की ओर अग्रसर है। जब तक ये पंक्तियां प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों में पहुंचेंगी तब मार्ग पैदल शिवभक्तों से खाली हो चुके होंगे और वहां वाहनों के बीच कांवड़िए दौड़ते हुए नजर आने लगेंगे, अर्थात डाक कांवड़ शुरू हो चुकी होगी। यह कांवड़ यात्रा का अंतिम चरण होगा, जिसका शिवरात्रि पर जलाभिषेक प्रारंभ होने के साथ ही समापन हो जाएगा। वैसे डाक कांवड़ इस पर्व की प्राचीन परंपरा नहीं है। इसकी शुरुआत महज दो दशक पहले हुई थी। यह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि हाल के दशकों में कांवड़ के विस्तार को कैसे-कैसे और कितने आयाम मिले हैं।
सावन का सनातन की संस्कृति से पुराना नाता है और शिव शंकर तो हैं ही सनातन संस्कृति के आदि पुरुष। एक दौर था जब माना जाता था कि, “बुंदिया पड़ते ही शिव शंकर ने बो दी भांग, शिव शंकर ने सींच दी भांग, शिव शंकर ने काट ली भांग, शिव शंकर ने घोट ली भांग, शिव शंकर ने पी ली भांग।” यह कहीं न कहीं भारतीय फिल्मी रूप में भी नजर आता है, जब किसी फिल्म का नायक फिल्म में शिवरात्रि पर भांग का घोटा लगाता है और गीत रूप में कहता है कि “जय-जय शिव-शंकर, कांटा लगे न कंकर, ये प्याला तेरे नाम का पिया।” ऐसा इसलिए है कि शंकर भगवान के जो रूप हमारे सामने हैं उनमें एक उनका भांगेड़ी रूप भी है। लेकिन सावन में शिवजी का वह भांगेड़ी रूप अब गौण हो चुका है। अब सीधे तौर पर सावन, भांग, शिवजी और कांवड़ का कोई सीधा संबंध दिखाई नहीं देता। बहरहाल, इन सब परंपराओं के बीच सदियों तक कांवड़ यात्रा एकल आस्था के रूप में सार्वजनिक होती रही है। महज 40 साल पहले तक शिव के भक्त एकल रूप से गंगाजल लेकर हरिद्वार की हरकी पैड़ी से पुरा महादेव के बीच करीब सवा सौ किलोमीटर की पैदल यात्रा करते रहे हैं। अहम यह है कि इसके पीछे भी एक परंपरा है।
माना जाता है कि मेरठ के पास स्थित पुरा की आबादी में भगवान परशुराम ने महादेव का मंदिर बनाकर वहां शिवलिंग की स्थापना की थी और हरिद्वार स्थित हरकी पैड़ी से कांवड़ रूप में पैदल गंगाजल ले जाकर इस शिवलिंग का अभिषेक किया था। ऐसा शिवरात्रि पर किया गया था और शिवरात्रि सावन में आती है। यही कारण है कि भगवान परशुराम की परंपरा का पालन करते हुए शिवभक्त सावन में हरकी पैड़ी से गंगाजल से भरी कांवड़ लेकर पैदल पुरा महादेव जाते थे और वहां जलाभिषेक करते थे। ऐसा आज भी होता है। लेकिन बदलते दौर में शिवभक्तों की आस्था के केंद्रों को भी नए आयाम मिले हैं। अब शिवलिंग का जलाभिषेक केवल पुरा महादेव में ही नहीं बल्कि अनेक अन्य शिव मंदिरों में भी होता है। ये मंदिर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान से लेकर झारखंड और बिहार तक स्थित हैं। यूं शिवभक्तों की आस्था के केंद्रों को ही नए आयाम नहीं मिले बल्कि यात्रा को भी नए आयाम मिले जो सवा सौ किलोमीटर से बढ़कर हजारों किलोमीटर में विस्तार पा गई। इसी क्रम में कांवड़ की अवधि के विस्तार को भी नए आयाम मिले। पहले जो यात्रा अधिकतम 8-10 दिनों में संपन्न हो जाती थी वह अब एक-डेढ़ महीने में संपन्न होती है। शिवरात्रि तक अपनी आस्था के केंद्र तक पहुंचने को प्रतिबद्ध दूर-दराज के शिवभक्तों को अब सावन शुरू होने से बहुत पहले अपनी यात्रा शुरू करना पड़ती है। और फिर यात्रियों की संख्या में तो बेहिसाब बढ़ोत्तरी हुई ही है।
बहरहाल, कांवड़ यात्रा को पिछले दो ढाई दशकों में जो विस्तार मिला है उनमें केवल मार्ग पर बढ़ी हुई यात्रियों की संख्या ही नहीं है, जो कि हजारों, बल्कि सैकड़ों, से बढ़कर करोड़ों में पहुंच गई है, बल्कि यह भी है कि अब कांवड़ एकल कर्म न रहकर सामूहिक कर्म भी हो गया है अर्थात अब हर कांवड़िया एक अलग कांवड़ लेकर ही नहीं चलता बल्कि अब कई-कई कांवड़िए भी एक ही कांवड़ लेकर चलने लग गए हैं, यह अलग बात है कि अब कांवड़ में गंगाजल की मात्रा भी बढ़ गई है। पहले कांवड़िया दो पात्रों में एक-लीटर गंगाजल लेकर यात्रा करता था। एक पात्र का जल वह शिवजी को अर्पित कर देता था और दूसरा पात्र अपने घर ले जाता था। अब एक कांवड़ में पात्रों की संख्या 10 तक हो गई है और प्रत्येक पात्र में जल की मात्रा 10 किलो या उससे अधिक भी हो गई है। साथ ही ऐसी किसी एक कांवड़ को ले जाने वाले शिवभक्तों की संख्या भी एक से बढ़कर दर्जनों या सैकड़ों में पहुंच गई है, जो बारी-बारी से इस कांवड़ को अपने कंधों पर उठाकर चलते हैं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से एक विस्तार यह भी हुआ है कि पहले जो कांवड़ आगे से पीछे की ओर यात्री के एक कंधे पर टिकती थी वो अब दांए से बांए दोनों कंधों पर टिकती है। यही कारण है कि नब्बे के दशक में कांवड़ यात्री को सिंगल रोड भी पर्याप्त होता था जबकि अब डबल रोड भी उसे कम पड़ता है। और डाक कांवड़ तो इसके विस्तार का एक रूप है ही जिसमें दूरी को घंटों की अवधि में निर्धारित करके कांवड़ यात्री कांवड़ लेकर भागते हैं; साथ ही भागता है उनका वाहन भी। यह भी सामूहिक कांवड़ यात्रा का एक रूप है जिसमें एक ही कांवड़ को लेकर एक से अधिक कांवड़िए बारी-बारी से भागते हैं। जाहिर है कि कांवड़ को मिले इन कई आयामों का एक आयाम यह भी है कि अब कांवड़ आयु बीत जाने के बाद या आयु चढ़ने के दौरान की जाने वाली यात्रा नहीं है, बल्कि यह नौजवानों द्वारा की जाने वाली यात्रा है। दौड़कर यात्रा करना या 50 किलो की कांवड़ को लेकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा करना जाहिर है कि नौजवान के ही बस की बात है।
सनातन को समर्पित समाज के विषय में एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि वह लिखित नियमों से संचालित नहीं होना चाहता बल्कि ऋषि-मुनियों, अवतारों तथा देवताओं द्वारा स्थापित परम्पराओं से संचालित होना चाहता है और परंपराओं में समय के बदलाव के साथ बदलाव आना लाजमी होता है। इस दृष्टिकोण से यह देखा जाना अभी बाकी है कि भविष्य में कांवड़ के कितने रूप सामने आएंगे। बहरहाल, कांवड़ यात्रा-2025 अपने समापन की ओर बढ़ रही है। अधिकांश पैदल कांवड़ यात्री अपनी-अपनी आस्थाओं के केंद्र शिव मंदिरों के निकट तक पहुंच चुके हैं या पहुंचने वाले हैं और अब शिवरात्रि का इंतजार है।