मोंटी पर डोरे डाल कर जीत का सपना देख रहा सत्तारूढ़ दल
एम हसीन
मंगलौर। यह ऐसा निकाय है जो भाजपा को लुभा तो रहा है लेकिन इसे अपने कब्जे में करने की जो रणनीति पार्टी के नीति-निर्धारक बनाते बताए जा रहे हैं, वह फलीभूत होती दिखाई नहीं दे रही है। बसपा के जिस नेता के भरोसा भाजपा जीत का सपना देख रही है, वह बार-बार मछली की तरह हाथ से फिसल रहा है। दूसरी ओर अपनों पर भाजपा भरोसा नहीं कर पा रही है। अहमियत इस बात की है कि इस निकाय क्षेत्र में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी खुद को पूरी तरह कमज़ोर पा रही है।
भाजपा को सत्ता में 8 साल गुज़ार लेने के बाद यह फायदा तो हुआ है कि आज उसके पास मंगलौर नगर पालिका अध्यक्ष पद का प्रत्याशी बनाने के लिए कम से कम तीन दावेदारों का पैनल मौजूद है। यानी नगर में तीन ऐसे लोग तो पार्टी ने जुटा ही लिए हैं जो कमल के निशान पर भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह 95 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाताओं वाला क्षेत्र है और यहां भाजपा का मत मुश्किल साढ़े तीन हजार है, जो उसे पिछले विधानसभा उप-चुनाव में मिला है। दूसरी ओर यह भी सच है कि भाजपा इस निकाय चुनाव में यहां अपने मत को इतना बढ़ा लेना चाहती है कि वह 2027 में विधानसभा का किला फतह कर सके। पार्टी को ऐसा एक ही तरीके से मुमकिन लगता है कि और वह यह है कि वह किसी तरीके से उबैदुर्रहमान अंसारी उर्फ मोंटी का समर्थन हासिल कर ले। ध्यान रहे कि मोंटी ने पिछले जून में यहां संपन्न हुए विधानसभा उप-चुनाव में बसपा के टिकट पर करीब 20 हजार वोट लिए थे, जिनमें से आधे उन्हें नगर क्षेत्र में मिले थे। जाहिर है कि यह एक बड़ा आंकड़ा है जिस पर बसपा का नहीं, बल्कि मोंटी का व्यक्तिगत दावा है, ऐसा पार्टी का मानना है। यही कारण है कि पार्टी का एक प्रभावशाली वर्ग यह चाहता है कि मोंटी भाजपा में आ जाएं और कमल निशान पर चुनाव लड़ें। लेकिन मोंटी के प्रबंधकों का विचार है कि पार्टी उन्हें निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ाए। बताया जाता है कि पार्टी का एक धड़ा इसके लिए भी तैयार है। इसके बावजूद बात कुछ बन नहीं रही तो इसका एक कारण यह भी है कि पार्टी टिकट के दावेदार कार्यकर्ता इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। दरअसल, पार्टी में टिकट के तीन दावेदार हैं लेकिन इनमें से किसी के भी पार्टी टिकट पर जीत जाने की उम्मीद नहीं है। दूसरी ओर यह भी सच है कि इनमें से एकाध ने पार्टी को लंबा समय दिया है और इसी उम्मीद में दिया है कि समय आने पर पार्टी उन्हें निकाय चुनाव लड़ाएगी। दिलचस्प बात यह है कि अगर मोंटी का चेहरा पार्टी के सामने न हो तो उसे भी अपने किसी भी चेहरे को चुनाव लड़ाने से गुरेज नहीं है, क्योंकि यूं चुनाव में पार्टी की शिरकत तो कम से कम हो ही जाएगी। लेकिन मोंटी फैक्टर पार्टी को कंफ्यूज कर रहा है।
बहरहाल, इससे भी अहम यह है कि इससे पार्टी की कमजोरी जाहिर हो रही है। जैसा कि पार्टी के एक विचारक का कहना है कि पार्टी सत्ता में है और उसके पास पिछले 8 साल में नगर में किए हुए अपने कामों का व्यापक आधार है। पार्टी और सरकार ने अल्पसंख्यक क्षेत्रों में भी काम किया है। उसके पास प्रत्याशी बनाने लायक अपने चेहरे भी हैं। इस विचारक का कहना है कि अगर पार्टी का लक्ष्य मोंटी को बसपा से तोड़ना ही है तो मोंटी को कहा जाए कि वे पार्टी की खुले आम सदस्यता लें और खुद चुनाव लड़ने का ख्याल छोड़कर पार्टी द्वारा निर्धारित उसके अपने प्रत्याशी को चुनाव लड़ाएं। बदले में पार्टी मोंटी को कहीं और, कुछ और सम्मान दे। इस विचारक के अनुसार यही एक तरीका है जो यहां पार्टी को जीत दिला सकता है।