पिछले चार में से एक भी चुनाव में नहीं मिली भाजपा को यहां विजय
एम हसीन
रुड़की। भारतीय जनता पार्टी की यह मजबूरी है कि अपने किसी भी चुनाव अभियान को लेकर वह अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राय को नजर अंदाज नहीं कर सकती। खास निकाय चुनाव के मामले में तो दिलचस्प हालात देखने में आते रहे हैं। मसलन, पार्टी ने उत्तराखंड गठन के बाद हुए 4 निकाय चुनाव में से हर चुनाव में नगर प्रमुख पद के लिए संघ पृष्ठभूमि का प्रत्याशी मैदान में उतारा और हर बार बुरी तरह मात खाई। चार में से केवल एक बार, 2013 में, पार्टी सम्मानजनक ढंग से चुनाव हारी थी। बाकी चुनाव में से किसी चुनाव में तो ऐसा भी हुआ कि जितने मत पार्टी को मिले उससे ज्यादा उसका हार का अंतर था। इससे क्या नतीजा निकलता है! क्या समाज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पृष्ठभूमि को पसंद नहीं करता? क्या नगर का समाज संघ को राजनीतिक नेतृत्व के योग्य नहीं समझता? या संघ ही अपने कार्यकर्ता को राजनीति के काम पर नहीं लगाना चाहता? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि फिर निकाय चुनाव सामने है और फिर भाजपा को मेयर प्रत्याशी का चयन करना है। कतिपय दावेदारों ने इस चीज को अपने दावे में पक्ष में एक तर्क के तौर पर प्रस्तुत किया है कि वे या उनका परिवार संघ की पृष्ठभूमि से आता है। जिन दावेदारों का यह तर्क है उन्हें निम्न स्थिति को देख लेना चाहिए।
2019 के निकाय चुनाव में भाजपा प्रत्याशी मयंक गुप्ता को 19 हजार से कुछ ज्यादा वोट मिले थे और 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी प्रदीप बत्रा ने 36 हजार से कुछ अधिक मतों का समर्थन पाया था। गौर करने लायक बात यह है कि मयंक गुप्ता का चुनाव लगभग पौने दो लाख मत वाले निर्वाचन क्षेत्र में हुआ था जबकि प्रदीप बत्रा का चुनाव लगभग सवा लाख मतदाताओं वाले क्षेत्र में। अगर नगर विधानसभा क्षेत्र में मयंक गुप्ता का समर्थन देखा जाए तो महज 13 हजार बैठता है। निकाय चुनाव के हिसाब से रुड़की नगर में भाजपा का मूल्यांकन किया जाए तो उसका वास्तविक वोट बैंक इतना ही बैठता है। यह वह मत संख्या है जो 2003 में पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े प्रमोद गोयल के खाते में भी आई थी और यही मतसंख्या 2013 में पार्टी टिकट पर मेयर चुनाव लड़े महेंद्र काला के भी खाते में गिनी गई थी।अर्थात 13 हजार वोट।
अगला मेयर चुनाव फिर पौने दो लाख से अधिक वोटों के आधार पर होगा। तो भाजपा में टिकट की सारी दावेदारी क्या महज़ 13 हजार, चलिए यूं कहिए कि 19 हजार, वोटों के लिए है? और फिर निकाय चुनाव में भाजपा की जीत का तो कोई रिकॉर्ड है नहीं। तो क्या भाजपा के सारे दावेदार हारने के लिए भाजपा का टिकट चाहते हैं? जाहिर है कि यह सवाल दावेदारों को अपने-आप से पूछना है और भाजपा को इस बात पर विचार करना है कि उसे चुनाव लड़ने की औपचारिकता पूरी करनी है या फिर जीत का चुनाव लड़ना है? पार्टी को टिकट का निर्धारण करने से पहले यह भी देखना होगा कि विधानसभा चुनाव में उसका रिकॉर्ड शानदार रहा है। इसी रुड़की नगर में वह 5 में से 4 बार चुनाव जीतकर आई है। और ऐसा भी नहीं कि उसने संघ पृष्ठभूमि के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ा। पूर्व विधायक सुरेश जैन के विषय में तो उनके परिजन यह दावा कर ही रहे हैं कि वे संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं। अलबत्ता प्रदीप बत्रा की एंट्री संघ में वाया भाजपा ही हुई है।