क्या नगर पंचायत झबरेड़ा अध्यक्ष पद के चुनाव से करेंगे शुरआत?
एम हसीन, झबरेड़ा नगर पंचायत के पूर्व अध्यक्ष डा गौरव चौधरी की राजनीतिक चाल इस बार बहुत सधी हुई दिखाई दे रही है। इस बार वे केवल चुनावी टिकट को ही सामने रखकर नहीं बल्कि चुनावी जीत को भी सामने रखकर राजनीति करते दिखाई दे रहे हैं। अपनी इस कोशिश के तहत पार्टी के विपरीत ध्रुवों पर बैठे दो नेताओं को संतुष्ट रखने का जो काम वे कर रहे हैं वह ही दरअसल उनकी आज की बेमिसाल राजनीतिक कारीगरी है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या इस बार भी वे शुरआत झबरेड़ा नगर पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव से ही करेंगे या फिर सीधे विधान सभा की ही राजनीति करेंगे? जाहिर है कि यह देखने वाली बात है। ध्यान रहे कि डा गौरव इस बार लंबे समय से कांग्रेस की राजनीति कर रहे हैं। यह उन की सोच में आए ठहराव का नतीजा है कि और कम से कम इस बार वे सत्ता की राजनीति को नकारकर बजाय विपक्षी चेहरे के रूप में संघर्ष कर रहे हैं। संभवत: वे जिले के अकेले ऐसे गुर्जर राजनीतिक हैं जो भाजपा में नहीं गए हैं।
जाहिरा तौर पर डा गौरव को राजनीति विरासत में मिली है। उनके पिता चौधरी यशवीर सिंह जब नगर पंचायत झबरेड़ा के अध्यक्ष रहते हुए विधायक निर्वाचित हो गए थे तो एक टर्म बाद डा गौरव झबरेड़ा नगर पंचायत अध्यक्ष बन गए थे। फिर विधायक पिता का जहूरा और प्रभाव काम आया तो वे राज्य सरकार में राज्य मंत्री भी बन गए थे। लेकिन इससे आगे विरासत उनके काम नहीं आ पाई थी। खुद पिता तो कांग्रेस के टिकट पर खानपुर में 2017 का विधासभा चुनाव हार ही गए थे, वे भी कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में 2018 में झबरेड़ा नगर पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हार गए थे। फिर शुरू हुआ था उनके संघर्ष का दौर। गरमा गर्मी में कभी भाजपा, कभी कांग्रेस की राजनीति करने की बजाय इस बार उन्होंने जमीन की राजनीति करने का इरादा कायम किया था और उन संबंधों को सुधारने का सिलसिला छेड़ा था जिन्हें वे अपने सत्तकाल में या अपनी नौजवानी के उतावलेपन में बिगाड़ आए थे।
उनके मिज़ाज में आए बदलाव का संकेत तब मिला था जब उन्होंने 2022 के विधान सभा चुनाव में किसी भी दल के टिकट पर दावा नहीं किया था। साथ ही कांग्रेस के मंगलौर प्रत्याशी काज़ी निजामुद्दीन को अपनी निष्ठा का प्रमाण देने के लिए न केवल खानपुर के चुनाव में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था बल्कि मंगलौर व झबरेड़ा में पूरी निष्ठा से काम किया था। यूं क़ाज़ी निज़ामुद्दीन अपनी सीट तो खैर नहीं जीत सके थे, लेकिन झबरेड़ा में उनके निष्ठावान वीरेंद्र जाती जीत गए थे जो कालांतर में उनके और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के बीच मजबूत कड़ी बने। दूसरा काम उन्होंने यह किया कि भाजपा की सत्ता में वापसी के बाद भी इस बार भाजपा गमन की कोई कोशिश नहीं की। हालांकि इसका एक कारण भाजपा में टिकट और जीत दोनों के प्रति अनिश्चितता भी थी। जबकि कांग्रेस में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन का हाथ सर पर हो तो टिकट और जीत, भले ही अंतिम परिणाम कुछ भी रहे, दोनों को लेकर कम से कम शुरू में अनिश्चितता दिखाई नहीं देती। इसलिए उन्होंने सत्ता के आसान रास्ते की बजाय विपक्ष का संघर्षपूर्ण रास्ता चुना। फिर आया 2024 का लोकसभा चुनाव। इसमें भी वे कांग्रेस प्रत्याशी वीरेंद्र रावत के पक्ष में मैदान में उतरे। बस उन्होंने इतना ध्यान रखा कि उनके किसी भी कदम से क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को समस्या न हो। यह इसलिए ज़रूरी था कि वीरेंद्र रावत जिन पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के पुत्र हैं, उनके रिश्ते क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के साथ सहज नहीं हैं। यूं तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस टिकट घोषित होने के बाद खुद क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ही इस कोशिश में दिखाई दिए थे कि उनकी किसी भी स्तर पर रावत के साथ लाइन क्रॉस न हो। स्वाभाविक रूप से इस एहतियात में डा गौरव ने उनका सहयोग किया। अब निकाय चुनाव सिर पर है और पिछला चुनाव डा गौरव झबरेड़ा में हार कर निकले थे। विधानसभा चुनाव में अभी समय है। इसलिए सवाल यह है कि वे शुरुआत नगर पंचायत से ही करेंगे या विधान सभा से? हो यह भी सकता है कि वे निकाय चुनाव का त्याग करके क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को उप चुनाव लड़ाने का फैसला करें। इस मामले में उन्हीं से कोई जवाब हासिल करने के लिए “परम नागरिक” ने उनसे साक्षात्कार का निवेदन किया था, जिसके लिए दुर्भाग्य से उन्होंने हामी नहीं भरी।