क्या कर पाता है कोई राजनीतिक जनप्रतिनिधि मिशनरी भावना से काम?

एम हसीन

भाजपा की उच्च स्तरीय राजनीति में लोकसभा चुनाव के बाद जरा सा परिवर्तन आते ही राज्य के विधायकों ने पहली ही फुर्सत में अपना वेतन 3 लाख से बढ़कर 4 लाख कर लिया। सेवाभाव से की जाने वाली राजनीति के लोमहर्षक रूप का यह बड़ा दिलचस्प उदाहरण है। बहरहाल, राज्य सरकार द्वारा घोषित किए गए कार्यक्रम के अनुसार निकाय चुनाव में अभी समय है। लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में मेयर, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष, नगर पंचायत अध्यक्ष, पार्षद और सभासद पदों के प्रत्याशियों ने पिछले महीनों में निकाय चुनाव को निश्चित मानकर अपनी तैयारी की ही है। उनकी तैयारी का सबसे बड़ी उपस्थिति होर्डिंग्स और कट आउट में मिलती है जो विभिन्न महानगरीय, नगरीय और अर्द्धनगरीय क्षेत्र में दिखाई देती है। इनमें कई प्रत्याशियों द्वारा अपने भावी चुनावी कार्यक्रम को “मिशन” का नाम दिया गया है। सवाल यह है कि क्या कोई प्रत्याशी या पद का दावेदार अपने चुनाव अभियान को मिशन का नाम दे सकता है? अगर मान लिया जाए कि वह “मिशन” शब्द की व्यापकता और पवित्रता को समझता है और उसकी भावना भी इस शब्द के प्रति पूरे तौर पर नेक है तो भी जिस प्रकार की राजनीति निकायों में देखने में आती रही है, उसके मद्दे नजर क्या उससे यह अपेक्षा की जा सकती है कि यदि जनता ने उसके मिशन को अपना मिशन मानकर उसका समर्थन कर भी दिया तो वह पद पर आने के बाद मिशनरी भावना से ही काम कर पाएगा?

वैसे तो गूगल ने “मिशन” शब्द को बहुत संकीर्ण बना दिया है। गूगल के अनुसार इस शब्द का अर्थ केवल “लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास” है और कोई अगर अपने काम के लिए दुकान तलाश कर रहा है तो यह भी उसके लिए मिशन का दर्जा रखता है। एक हद तक इसे ठीक माना जा सकता है। लेकिन “मिशन” शब्द बहुत व्यापक और बहुत पवित्र है। मिशन का अर्थ है व्यापक, समग्र समाज के कल्याण के लिए पूरी निष्ठा और सेवा भाव से किया जाने वाला कार्य। ऐसा नहीं है कि आधुनिक समाज में मिशनरी भावना से काम करने वाले लोगों की कमी है या मिशनरी भावना के तहत काम प्रारंभ नहीं किए जाते। बेशक किए जाते हैं। लेकिन उनका समापन कैसे होता है?

दरअसल, केवल जनकल्याण की भावना से शोध करने वाला कोई वैज्ञानिक या केवल सेवा भाव से अपना काम करने वाला कोई डॉक्टर या केवल उद्देश्य परक भवन निर्माण के काम में जुटा कोई इंजीनियर और केवल जनकल्याण के उद्देश्य से अपना कारोबार चला रहा कोई व्यापारी या व्यवसाय निकाय प्रमुख के लिए दावेदारी करता हुआ दिखाई नहीं देता। सामान्यतः निकाय प्रमुख के लिए उन्हीं लोगों के दावे सामने आते हैं, जिन्होंने पहले अपने काम धंधे में पैसा कमाने को मिशन मानकर प्रगति की और धन कमाया। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद उन्होंने समाज में वापसी की अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए पद पर दावेदारी ठोक दी। अपवाद स्वरूप कोई ऐसा दावेदार भी होता है जो समग्र समाज के लिए कोई सोच, कोई विचार, कोई सुधार या कोई परिवर्तन की भावना लेकर पद पर दावा करता है और कोई बड़ी बात नहीं कि वह जीत भी जाता है क्योंकि किसी न किसी को तो जीतना ही होता है। यह भी सच है कि सभी दावेदार केवल और केवल आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दावा करते हों, लेकिन आवेदन न करता हो लेकिन इतिहास का अनुभव बताता है कि पद पर दावा करते समय किसी भी दावेदार की भावना चाहे जो होती हो लेकिन कार्यकाल का समापन सबका लगभग एक ही जैसी स्थिति में होता है। थोड़ी बहुत कमी बेशी के साथ किसी के पास यह दावा करने का पुख्ता आधार नहीं होता कि उसने पद पर आने के बाद कुछ अलग, कुछ व्यापक, कुछ समग्र जनकल्याण का कार्य किया। ऐसी स्थिति में जब कोई दावेदार जब अपने चुनाव अभियान को “मिशन” का नाम देता है तो स्थिति बड़ी हास्यास्पद नजर आती है।