लेकिन 2013 का इतिहास आज भी भूले नहीं हैं लोग, तब मेयर के हर संभावित प्रत्याशी का नाम मतदाता सूची से हो गया था गायब, महानगर की राजनीति का कोई स्थापित चेहरा तब नहीं लड़ पाया था मेयर चुनाव

एम हसीन

रुड़की। चुनाव आयोग के खिलाफ बिहार में राहुल गांधी की अगुवाई में यात्रा निकाली जा रही है तो दिल्ली में समूचा विपक्ष आज मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ संसद में महाभियोग लाने की तैयारी कर रहा है। इस सबके बीच निचले स्तर पर इस मुद्दे पर सबसे अधिक सक्रियता रुड़की में है। जब “परम नागरिक” संवाददाता यह खबर लिख रहा है, ऐन उसी समय महानगर कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग के खिलाफ जॉइंट मजिस्ट्रेट रुड़की को एक ज्ञापन सौंप रहा है। इस बिंदु पर आकर रुड़की का 2013 का उदाहरण चर्चा का बेहतरीन मसौदा है।

यह वर्ष 2013 था। रुड़की नगर पालिका को उच्चीकृत कर नगर निगम का दर्जा दिया जा चुका था और रुड़की नगर अपना प्रथम मेयर चुनने की दहलीज पर खड़ा था। उससे पहले नगर की राजनीति सियासतदानों के हाथ से निकल कर कॉरपोरेट कल्चर में रंगी जा चुकी थी। प्रदीप बत्रा नगर विधायक निर्वाचित हो चुके थे और वे सत्तारूढ़ दल का हिस्सा थे। उन्होंने घोषित रूप से नगर की राजनीतिक संस्कृति को बदला था। 2008 में बतौर निर्दलीय नगर पालिका अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने 2011 में सार्वजनिक मंच से घोषणा की थी कि “राजनीति गरीब आदमी का काम नहीं है। यह पैसे वाले आदमी का काम है और अब हम राजनीति करेंगे।” उसके बाद उन्होंने कांग्रेस का टिकट हासिल किया था और विधानसभा चुनाव जीता था। फिर 2015 में वे उन 9 कांग्रेस विधायकों का हिस्सा बने थे जो कांग्रेस सरकार को गिराकर भाजपा में शामिल हुए थे। 2008 में ही प्रदीप बत्रा के साथ एक ऐसा खास वर्ग जुड़ा था जो सर्व धर्मीय है और यही वर्ग आज भी प्रदीप बत्रा के साथ है। राजनीति इसी कारण बदली है।

बहरहाल, 2013 में नगर की राजनीति में कुछ उल्लेखनीय चेहरे थे जो शिक्षा नगरी का प्रतिनिधित्व करने के लिए कमर कसे हुए थे। अभिषेक चंद्रा इनमें एक थे। लेकिन उनकी सारी तैयारी इस एक हकीकत पर आकर खत्म हो गई थी कि मतदाता सूची में उनका नाम नहीं था। तब तक खुद अभिषेक चंद्रा सभासद या पार्षद नहीं बने थे लेकिन उनकी माता श्रीमती राखी चंद्रा और पिता राजेश चंद्रा दोनों ही सभासद रह चुके थे। 2013 में उनकी मेयर चुनाव लड़ने की पूरी तैयारी थी। वे चुनाव नहीं लड़ पाए थे। उन्होंने इस बाबत “परम नागरिक” को बताया कि “उस समय केवल उनका या उनके परिवार का ही नहीं, बल्कि उनके आस-पास के सैकड़ों लोगों का नाम मतदाता सूची में नहीं पाया गया था।

2008 में नगर पालिका अध्यक्ष पद का चुनाव लड़कर शानदार प्रदर्शन करने वाले हाजी सलीम खान भी मेयर चुनाव के लिए कमर कसे हुए थे। लेकिन समय आने पर उनके पूरे परिवार और आधे मुहल्ले के वोट मतदाता सूची से गायब थे। उन्होंने इस मामले को तत्काल उस समय के राज्यपाल के समक्ष उठाया था और उनके अनुज अज़ीज़ु रहमान उर्फ प्यारे मियां ने अपना वोट सूची में न होने को मुद्दा बनकर हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। हाई कोर्ट ने दोषियों के खिलाफ कार्यवाही का आदेश भी दिया था। बाद में क्या हुआ पता नहीं। तब भाजपा के पूर्व सभासद और पूर्व नगर अध्यक्ष डॉ राकेश त्यागी व निकाय चुनाव के लिए तैयारी करते आ रहे प्रमोद जौहर का नाम भी मतदाता सूची से नदारद था। गरज यह कि उस समय मेयर चुनाव का हर स्थापित दावेदार केवल इसलिए मन-मसोसकर रह गया था क्योंकि उसका नाम मतदाता सूची में नहीं था।

लोकसभा, विधानसभा और निकाय की मतदाता सूचियों में अंतर होना एक आम बात है। ऐसा अक्सर होता है कि जो लोग विधानसभा चुनाव में वोट डालते हैं उनका नाम निकाय चुनाव की सूची से गायब मिलता है और जो लोग मेयर चुनाव में वोट डालते हैं उनका नाम लोकसभा चुनाव लिस्ट में गायब पाया जाता है। लेकिन 2013 के उस चुनाव में रुड़की महानगर के हजारों लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब मिले थे। ऐसा किसने किया था और जिसके इशारे पर, किसकी सुविधा के लिए था, यह आज भी जांच विषय हो सकता है। बहरहाल, बाद में भी मतदाताओं के नाम छिटपुट रूप से सूची से गायब होने की शिकायतें तो आती रही, लेकिन 2013 जैसा हाल फिर सुनने में नहीं आया। अलबत्ता बाद में इस प्रयोग का रूप काफी-बदला हुआ नजर आया। मसलन, हाल के निकाय चुनाव में ही कई पार्षद प्रत्याशियों पर आरोप लगे थे कि उन्होंने अपने क्षेत्र में फर्जी वोट बनवाए हुए हैं। तब बताया गया था ऐसे अनेक लोगों ने नगर निकाय चुनाव में मतदान किया जिन्होंने पिछले पंचायत चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों में भी मतदान किया था।