अपने भीष्म पितामह की अगुवाई में राजनीतिक प्रासंगिकता तलाश कर रही कांग्रेस?

एम हसीन

रुड़की। लोकतंत्र पक्ष और विपक्ष की मौजूदगी से ही बनता, चलता और फलता-फूलता है। इसी बिंदु पर अगर कांग्रेस का विश्लेषण किया जाए तो कांग्रेस की प्रासंगिकता कायम है। वह भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ते हुए मत विभाजन कराने और विपक्ष की भूमिका निभाने का काम बखूबी कर रही है। लेकिन क्या इतना काफी है? खासतौर पर उस मतदाता के दृष्टिकोण से जो कांग्रेस को वोट देता है तो विपक्ष में बैठने के लिए तो नहीं देता। देखना तो वह कांग्रेस को सत्ता में ही चाहता है। और शायद यही हरीश रावत भी चाहते हैं जो कि निरंतर सक्रिय हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को उत्तराखंड में कांग्रेस का भीष्म पितामह कहा जा सकता है। 70 से ज्यादा बसंत देख चुके इस व्योवृद्ध कांग्रेसी को उत्तराखंड गठन के बाद यहां कांग्रेस को जिंदा करने का श्रेय जाता है तो 2017 में कांग्रेस को दफ्न करने का श्रेय भी जाता है। स्थिति यह है कि पिछले 11 सालों में कांग्रेस राज्य में बार-बार पराजित हुई है और व्यक्तिगत रूप से हरीश रावत भी बार-बार हारे हैं। स्थिति वहां पहुंची हुई है जहां पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी यह उम्मीद नहीं है कि अगले चुनाव में उसकी तस्वीर बदलने जा रही है। लेकिन बंजारा तबियत वाले हरीश रावत के लिए हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना भी तो आसान नहीं है। अपनी इसी तबियत के तहत वे गत दिवस रुड़की पहुंचे और उन्होंने कई व्योवृद्ध कांग्रेसियों से मुलाकात की। उन लोगों से मुलाकात की जिन्होंने उन्हें 2009 में राजनीतिक जीवनदान देने में महत्वपूर्ण किरदार अदा किया था। इससे यह इशारा तो मिलता है कि हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस को राजनीतिक प्रासंगिकता की तलाश है लेकिन यह सवाल फिर अहम हो जाता है कि अगर पार्टी को राज्य में अपनी कोई अलग, कोई खास मतलब रखने वाली प्रासंगिता हासिल हो भी जाती है तो उसका खुद उसे कितना लाभ मिलेगा ……और खुद हरीश रावत को इसका कितना लाभ मिलने की उम्मीद है?

यह तो कहा नहीं जा सकता कि हरीश रावत एकाएक सक्रिय हुए हैं। सक्रिय तो वे रहते ही हैं। लेकिन पूर्व मंत्री रामसिंह सैनी और पूर्व कांग्रेस जिलाध्यक्ष रणविजय सैनी से संभवतः पिछले लोकसभा चुनाव में मिले होंगे जब वे यहां अपने पुत्र कांग्रेस प्रत्याशी वीरेंद्र रावत का चुनाव प्रचार करने आए थे और या फिर शायद अब आए हैं। दरअसल, इन दोनों ही लोगों ने हरीश रावत को उस समय जीवनदान देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी जब उनका कैरियर डूब रहा था। वे अपनी परंपरागत अल्मोड़ा लोकसभा सीट पर लगातार 5 चुनाव हार चुके थे और 2009 तक आते-आते अल्मोड़ा सीट आरक्षित भी हो गई थी, जबकि हरिद्वार सीट आरक्षण मुक्त हो गई थी। तब हरीश रावत यहां चुनाव लड़ने आए थे और जीते भी थे। तब रामसिंह सैनी बसपा छोड़कर उनके साथ आए थे जबकि रणविजय सैनी पार्टी जिलाध्यक्ष थे। यहीं से जीतकर हरीश रावत पहले यू पी ए-2 में मंत्री बने थे और फिर 2014 में राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। 2014 में मोदी युग शुरू हो गया था और हरीश रावत के मुख्यमंत्री रहते ही हरिद्वार सीट पर ही उनकी पत्नी रेणुका रावत लोकसभा चुनाव हारी थी और वे खुद 2017 का चुनाव हारे थे। उसके बाद वे और कांग्रेस यहां कभी जीत नहीं पाए।

कांग्रेस की और हरीश रावत की चुनावी हार अपनी जगह पर है और उनका जीतकर दोबारा मुख्यमंत्री बनने का अरमान अपनी जगह पर है। अब 2027 सामने है और रावत की अगर कहीं से कोई ब्रेक थ्रू मिलने की उम्मीद है तो वह हरिद्वार जिला ही है। आखिर हाल के लोकसभा चुनाव में इसी जिले ने उनके कांग्रेस प्रत्याशी पुत्र वीरेंद्र रावत को पौने 5 लाख वोटों का जबरदस्त समर्थन दिया था। यही जिला है जहां की आधी से ज्यादा विधानसभा सीटों पर फिलहाल भी कांग्रेस के विधायक हैं, जिनमें एक हरीश रावत की पुत्री अनुपमा रावत भी एक हैं।उपरोक्त तमाम स्थितियों के बावजूद यह सवाल अपने स्थान पर कायम है कि क्या कांग्रेस या खुद हरीश रावत को ब्रेक थ्रू मिल पाएगा?