अब तो लगता है कि आ ही गई फैसले की घड़ी
एम हसीन
मंगलौर। जिले की तीन नगर पालिका परिषदों में एक मंगलौर है। मौजूदा राज्य सत्ता के लिए यह नगर पालिका परिषद बेहद महत्वपूर्ण है। दरअसल यह नगर पालिका परिषद उस मंगलौर विधानसभा क्षेत्र का हृदय स्थल है जहां छ: महीने पहले भाजपा अपनी पूरी ताकत लगाने के बावजूद स्थानीय दिग्गज और मौजूदा विधायक, दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के सामने हारी थी। जाहिर है कि अगर निकाय चुनाव में भी यहां कांग्रेस का ही प्रत्याशी जीत गया तो यह भाजपा के लिए दोहरी शर्म की बात होगी। लगता नहीं कि भाजपा इस दोहरी शर्मिंदगी के लिए तैयार है। इस बात को कोई और चाहे समझे या न समझे लेकिन क़ाज़ी निज़ामुद्दीन बहुत अच्छी तरह समझते हैं।
हाल ही में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को पार्टी के भीतर जो प्रमोशन मिला है उसकी रूह में और भी जरूरी है कि उनका मंगलौर में कोई ऐसा प्रतिनिधि हो जो उनकी स्थानीय राजनीति को संभाल सके। कारण, दिल्ली में आम आदमी पार्टी हराओ अभियान के लिए जरूरी होगा कि वे अपना अधिकांश समय दिल्ली को दें। और अगर वे ऐसा करेंगे कोई बड़ी बात नहीं कि 2027 में उनके हाथ से उसी प्रकार मंगलौर फिर निकल जाए जिस प्रकार 2022 में तब निकल गया था जब वे राजस्थान में अपने सह-प्रभारी होने के दायित्वों को निभा रहे थे। आखिर यह तो वे ही जानते हैं कि उन्हें मंगलौर में वापसी के लिए कैसे-कैसे कष्ट उठाने पड़े। यही कारण है कि उन्हें भी अपना प्रत्याशी बहुत सोच-समझकर, हर हाल में जीतने वाला, तय करना है।
निकाय प्रत्याशी का मामला क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के लिए इसलिए भी अहम है कि करतार सिंह भड़ाना हरियाणा में जीत दर्ज करने के बाद फिर मंगलौर वापिस आ गए हैं और इसलिए भी जरूरी है कि भाजपा की राजनीति में बड़ा बदलाव आ रहा है। हरिद्वार जिले में भाजपा को 2022 में जो झटका विधानसभा में लगा था उसे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की अगुवाई में भाजपा 2027 में न केवल दोहराना नहीं चाहती बल्कि ऐसे किसी झटके की बुनियाद को वह आसन्न निकाय चुनाव में ही खत्म भी कर देना चाहती है। अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि शिवालिकनगर नगर पालिका परिषद के निवर्तमान अध्यक्ष और संभावित भावी प्रत्याशी (अगर हरिद्वार में मेयर पद आरक्षित हुआ तो) राजीव शर्मा की पुत्री के हाल ही में हुए विवाह समारोह में खुद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने शिरकत की थी। इसे हरिद्वार जिले की राजनीति में आ रहे बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। संदेश साफ है कि मुख्यमंत्री ऐसे किसी भी भाजपाई या गैर-भाजपाई सिर को निकाय चुनाव में ही कुचल देना चाहते हैं जो विधानसभा चुनाव में समस्या पैदा करने की कोशिश कर सकता हो।
एक ओर यह स्थिति है दूसरी ओर मंगलौर निकाय के लिए कांग्रेस प्रत्याशी के चयन का मामला है। हाल-फिलहाल तक क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के कैंप से जिन दो नामों का चर्चा नगर के गली-मोहल्लों में आम है उनमें कांग्रेस के टिकट पर नगर पालिका परिषद अध्यक्ष रह चुके चौधरी इस्लाम और उनके सनातन प्रतिद्वंदी, बसपा के टिकट पर दो बार नगर पालिका अध्यक्ष रह चुके डा शमशाद का है। यह वह स्थिति है जो फिलहाल मंगलौर में चल रही है। वैसे मेरी अपनी राय इस मामले में बिल्कुल अलग है लेकिन उसपर मैं कुछ दिन बाद चर्चा करूंगा। फिलहाल चर्चा केवल उसी स्थिति पर जो मंगलौर में आज चल रही है।
पिछले निकाय चुनाव तक मंगलौर की स्थिति बेहद आदर्श थी। यहां बसपा की कमान दिवंगत विधायक हाजी सरवत करीम अंसारी के हाथ में थी और नगर की राजनीति दो स्पष्ट हिस्सों में बंटी हुई थी। उस स्थिति में डा शमशाद के लिए आसान न होता क़ाज़ी कैंप को ज्वाइन करना। लेकिन हाजी के देहावसान ने स्थिति बदल दी। पालिका से संबंधित आर्थिक मामलों में उलझे डा शमशाद के लिए इतना जरूरी अगला चुनाव लड़ना नहीं जितना अपने झमेलों से निपटना। इसके लिए उन्हें विधायक का संरक्षण दरकार था और हाजी के निधन के पश्चात यह पद क़ाज़ी के पास जाना लाजिमी था। फिर कोई बड़ी बात नहीं कि डा शमशाद ने क़ाज़ी कैंप ज्वाइन कर लिया था। अब स्थिति यह है कि चौधरी इस्लाम को तो स्वाभाविक रूप से कांग्रेस का भावी प्रत्याशी माना जा रहा है लेकिन डा शमशाद कैंप के लोगों की कोशिश यह है कि वे न केवल टिकट मांगें बल्कि उन्हें टिकट मिले भी और वे चुनाव जीतें भी। हो सकता है कि टिकट की टीस डा शमशाद के भी मन में हो, लेकिन अगर उनके मन में टीस न भी हो भी वे अपनी प्राथमिकता अपने समर्थकों से कह तो नहीं सकते न। यही कारण है मीडिया भी मानता है कि क़ाज़ी कैंप में टिकट के दावेदार दो हैं। यह सवाल स्वाभाविक रूप से क़ाज़ी से भी होता है और क़ाज़ी भी इस पर कोई स्पष्ट जवाब नहीं देना चाहते। कम से कम मुझे तो उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले यही कहा था कि “उनके प्रबुद्ध समर्थक दोनों दावेदारों से चर्चा करके जिसका भी नाम फाइनल करेंगे उसे टिकट दे दिया जाएगा।” लेकिन यह पुरानी बात है। तब तक अभी विधानसभा का उप-चुनाव तो क्या लोकसभा चुनाव भी नहीं हुआ था। यानि तब क़ाज़ी को दोनों का समर्थन दरकार था। दोनों ने क़ाज़ी को निराश भी नहीं किया; लेकिन क़ाज़ी दोनों कांग्रेस टिकट तो नहीं दे सकते न। जाहिर है कि जन सामान्य के स्तर पर यह सस्पेंस अभी बना रहने वाला है; हालांकि मुझे हालात का अंदाजा अभी ही हो रहा है।