पिछले दो साल में कांग्रेस संगठन में ऊपर समायोजन की नहीं बन पाई कोई गुंजाइश!

एम हसीन

रुड़की। 10 साल तक महानगर कांग्रेस अध्यक्ष रहने के बाद कलीम खान पिछले दो साल से अपना कार्यकाल “पूर्व महानगर अध्यक्ष” पद के रूप में गुजार रहे हैं। हालांकि झबरेड़ा विधायक वीरेंद्र जाती की अगुवाई वाले ग्रामीण जिला कांग्रेस संगठन में “बी टु जेड” सारे पद खाली पड़े हैं। केवल “ए” पद अध्यक्ष पर वीरेंद्र जाती कार्य कर रहे हैं। वैसे अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित लेकिन मुस्लिम बहुल झबरेड़ा विधानसभा क्षेत्र में वीरेंद्र जाती को ही जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी दिया जाना कांग्रेसी क्षेत्रों में आज तक ताज्जुब की बात मानी जाती रही है; खासतौर पर इसलिए कि पार्टी के कई मुस्लिम चेहरे, जिनमें झबरेड़ा क्षेत्र के ही कई बेहद महत्वपूर्ण माने जाने वाले मुस्लिम चेहरे भी शामिल हैं, भी इस पद के लिए अपना दावा पेश कर रहे थे।

बहरहाल, अहम मसला यह है कि कलीम खान का कैरियर “पूर्व महानगर अध्यक्ष” के डेजिगनेशन पर आकर ठहर गया है और इससे भी बड़ा सच यह है कि रुड़की में कलीम खान का पैर मुस्लिम राजनीति के लिहाज से हाथी का पैर रहा है। उनके पैर के नीचे मुकम्मल मुस्लिम राजनीति का पैर रहा है। बात 2007 की है। तब तक उत्तराखंड में समाजवादी पार्टी चौथे विकल्प के रूप में मौजूद थी। तब राव शकील खां समाजवादी पार्टी के टिकट पर रुड़की में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, और उनके पक्ष में जबरदस्त माहौल बना हुआ था। तभी कांग्रेस ने अपना विधानसभा टिकट रुड़की नगर सीट पर हाजी फुरकान अहमद को देकर राव शकील के चुनाव अभियान का किस्सा खत्म कर दिया था। वे बिना नामांकन दाखिल किए घर बैठ गए थे। यह उस समय की बात है जब रुड़की के ही निवासी हाजी सलीम खान अल्पसंख्यक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे। तब विधानसभा जैसा महत्वपूर्ण टिकट मुस्लिम वर्ग के पास आने से नगर की अल्पसंख्यक राजनीति में कांग्रेस को लेकर एक नया विश्वास पैदा हुआ था। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव तक स्थिति बदल गई थी। तब तक नया परिसीमन हो गया था और कलियर सीट अस्तित्व में आ गई थी। हाजी फुरकान अहमद ने रुड़की को छोड़कर कलियर में डेरा डाल दिया था और रुड़की में पार्टी ने विधानसभा टिकट प्रदीप बत्रा को दे दिया था। तब उम्मीद यह बंधी थी कि विधानसभा न सही, पार्टी मेयर का टिकट किसी मुस्लिम को देगी।

लेकिन 2012 में विधायक निर्वाचित होने के बाद प्रदीप बत्रा चूंकि नगर की पूरी राजनीति को अपने हिसाब से चलाने लायक हो गए थे, इसलिए उन्होंने 2013 के निकाय चुनाव से पहले ही जमीनी कार्यकर्ता कलीम खान को महानगर अध्यक्ष बनवाकर मुस्लिम समुदाय की मेयर टिकट पर दावेदारी खत्म कर दी थी। मेयर टिकट राम अग्रवाल के पास चला गया था जो प्रदीप बत्रा के पार्टनर हैं। इस प्रकार नगर की तमाम मुस्लिम राजनीति कलीम खान के भीतर समाहित हो गई थी। 2012 के बाद कलीम खान के अलावा किसी मुस्लिम को नगर के भीतर कांग्रेस की ओर से कुछ नहीं मिला। फिर बदलाव का दूसरा दौर भी आना ही था। आया। 10 वर्षों के बाद कलीम खान को महानगर अध्यक्ष पद से रुखसत कर दिया गया।

जहां तक नगर की मुस्लिम राजनीति का सवाल है, उसके लिए तो कोई गुंजाइश कांग्रेस में दिखने का सवाल नहीं। विधानसभा और मेयर टिकट पर तो मुसलमान की अब कोई दावेदारी ही नहीं है। नगर में कोई ऐसा चेहरा ही नहीं जो टिकट मांग सके। बात कुछ और है और बात यह है कि जिन कलीम खान को पार्टी ने महानगर में समूची मुस्लिम राजनीति का पर्याय बना दिया था, विडंबना की बात है कि उन्हें भी दो वर्ष से “पूर्व” करके छोड़ा हुआ है। किसी हाजी सलीम खान, किसी हाजी राव शेर मुहम्मद, किसी हाजी नौशाद अली, किसी आदि किसी और मुस्लिम के नाम के आगे तो खैर कुछ लिखा हुआ है ही नहीं।