महाराष्ट्र में हाल ही में पार्टी के बागियों को मनाने में अदा कर चुके हैं भूमिका
एम हसीन
नई दिल्ली। अपनी परंपरागत मंगलौर विधानसभा सीट पर पिछले दिनों, मुश्किल से ही सही, उप-चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव और महाराष्ट्र के सह-प्रभारी क़ाज़ी निज़ामुद्दीन अब नई भूमिका में हैं। उनके सतत संपर्क में रहने वाले उनके एक निकट मित्र ने “परम नागरिक” को बताया कि इन दिनों क़ाज़ी निज़ामुद्दीन महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अपना योगदान दे रहे हैं। महाराष्ट्र में टिकट वितरण के बाद पार्टी के लिए पैदा हुए मुश्किल हुए हालात में उन्होंने अपनी सकारात्मक भूमिका अदा की है। ऐसे ही कारणों से क़ाज़ी निज़ामुद्दीन कांग्रेस हाई कमान की निगाह में चढ़े हुए हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या क़ाज़ी निज़ामुद्दीन उस वैक्यूम को दूर कर पाएंगे जो इन दिनों कांग्रेस की राजनीति में ऊपर से नीचे तक हर स्तर पर नज़र आ रहा है? यह वैक्यूम है मुस्लिम चेहरे की कमी का!
एक दौर में अहमद पटेल सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार होते थे। यह वह दौर था जब देश में मुसलमान को शासित नहीं बल्कि सह-शासक के तौर पर देखा जाता था। उस समय गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद और ऐसे ही कितने ही चेहरे पार्टी नेताओं की पहली सफ में नजर आते थे। फिर दौर बदला। अहमद पटेल दिवंगत हो गए और गुलाम नबी आजाद पार्टी से बाहर हो गए। सलमान खुर्शीद अभी पार्टी में ही हैं लेकिन हाशिए पर हैं। स्थिति यह है कि नरेंद्र मोदी का उदय होने के बाद मुसलमान के सह-शासक होने का मसला तो खत्म हो ही गया, देश की राजनीति भी एक प्रकार से मुस्लिम लेस हो गई है। केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि दूसरे सेकुलर दलों में भी कोई मुस्लिम चेहरा पहली पाँत में नजर नहीं आता। ऐसा नहीं है कि सेकुलर दलों में मुस्लिम विधायक, सांसद या राज्यसभा सदस्य नहीं हैं लेकिन पहली पाँत में कोई मुस्लिम चेहरा नजर नहीं आता।
इस सबके विपरीत स्थिति क़ाज़ी निज़ामुद्दीन की है। हालांकि कांग्रेस के भीतर राष्ट्रीय स्तर पर नुमायां हैसियत अभी उन्हें भी हासिल नहीं है। हैं वे भी अभी पार्टी के महज राष्ट्रीय सचिव ही। महासचिव वे भी नहीं हैं। यही कारण है कि वे महाराष्ट्र के सह-प्रभारी हैं। इससे पहले वे राजस्थान के सह-प्रभारी थे। लेकिन अहम यह है कि उन्हें राहुल गांधी की व्यक्तिगत टीम का हिस्सा माना जाता है। यही कारण है कि भले ही पार्टी की बैठकों में या मीडिया में उनका नुमायां रुतबा न दिखाई देता हो लेकिन पार्टी के दूसरी पाँत के नेताओं पर उनका दबदबा बिल्कुल दिखाई देता है, खासतौर पर राज्यों की कांग्रेस की राजनीति में उनके प्रभाव की धमक महसूस की जाती है। क़ाज़ी निज़ामुद्दीन जिस उत्तराखंड से आते हैं वहां की राज्य की राजनीति में उनके लिए गुंजाइशें बहुत अधिक नहीं है। लेकिन यही चीज उनके लिए पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में गुंजाइश बनाती है। कांग्रेस का वक्त अगर बदलता है तो क़ाज़ी निज़ामुद्दीन के कद को निखार मिलने की भी भरपूर गुंजाइश रहेगी।