सवाल यह कि बदलाव बिना आरक्षण के या आरक्षण के माध्यम से?
एम हसीन
रुड़की। उत्तराखंड में निकाय चुनाव की सुगबुगाहट के बीच आरक्षण न होने की स्थिति में भाजपा का मेयर टिकट किसकी झोली में जा सकता है यह सवाल सबकी ज़बान पर है। अगर सीट सामान्य भी रहती है तो पार्टी में टिकट के दावेदारों की कतार बेहद लंबी है। इनमें परम्परागत चेहरे भी हैं, मध्यम श्रेणी के चेहरे भी और अपेक्षाकृत बेहद युवा भी। ऐसे वरिष्ठ भी हैं जिन्हें पहली बार टिकट के दावेदार के रूप में देखा जा रहा है और ऐसे भी जो पार्षद या सभासद के रूप में पहले निगम की राजनीति का हिस्सा रहे हैं।
उपरोक्त में कौन भाजपा का मेयर प्रत्याशी होगा यह इस बात से तय होगा कि सीट आरक्षित होगी या नहीं; आरक्षित होगी या नहीं यह इस बात से तय होगा कि नीति नियंता नगर में राजनीतिक बदलाव किस रूप में लाना चाहते हैं। आरक्षण के माध्यम से, आरक्षण के किसी खास रूप, मसलन सामान्य महिला, पिछड़ा वर्ग पुरुष या महिला अथवा दलित वर्ग पुरुष या महिला के माध्यम से। कोई दलित पुरुष या महिला चेहरा भाजपा या कांग्रेस में सुर्खियों में नहीं है। इससे यह जाहिर होता है कि कम से कम दलित वर्ग के लिए सीट आरक्षित नहीं होने जा रही है। लेकिन पिछड़ा वर्ग के तमाम चेहरे भाजपा और कांग्रेस दोनों में सक्रिय हैं।
इस स्थिति के बीच सवाल यह है कि आरक्षण होगा या नहीं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि बदलाव का प्रकार क्या निर्धारित होता है। बात को यूं समझा जा कि चुनावी राजनीति में बदलाव के लिए आवश्यक रूप से 20 साल का और सामान्य रूप से 10 साल का पैट्रन काम करता है। ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा तक पर यह अघोषित नियम लागू होता है। इसी पैट्रन से राजनीतिक दलों से लेकर राजनीतिक व्यक्तित्वों का वजूद बनता, बिगड़ता और फिर बनता है। यूं ही संस्थाओं का वजूद भी बनता और बदलाव का है। यह अघोषित व्यवस्था स्थायित्व को, निरंतरता को तोड़ता है और नई नस्लों को लोकतंत्र से जोड़ता है।
इस व्यवस्था के तहत और पंचायती राज कानून के हिसाब देखें तो रुड़की में पहला नगर पालिका चुनाव 1989 में तब हुआ था जब अभी उत्तराखंड राज्य का गठन नहीं हुआ था। यूं दो चुनाव 2000 से पूर्व उत्तर प्रदेश में रहते हुए ही यहां हो चुके थे और दो चुनाव राज्य गठन के बाद 2003 व 2008 तक हुए थे। इस क्रम में 2013 के चुनाव से पूर्व ही 20 साल का चक्र पूरा हो चुका था। स्थापित पैट्रन के हिसाब से 2013 का चुनाव बदलाव के साथ होना था। बदलाव यह हुआ था कि निकाय उच्चीकृत होकर नगर निगम बना था। अब निगम से ज्यादा तो उच्चीकृत संस्था हो नहीं सकती लेकिन बदलाव तो लाजमी है। बदलाव का एक तरीका आरक्षण भी है। जाहिर है कि आरक्षण लागू होते ही भाजपा में स्थितियां बदलेंगी। मसलन, अगर मात्र महिला आरक्षण लागू होता है तो वरिष्ठों से लेकर कनिष्ठों तक वे सभी चेहरे अप्रासंगिक हो जाएंगे जो महिला विकल्प साथ लेकर नहीं चल रहे हैं। इसी प्रकार पिछड़ा आरक्षण समस्त अगड़ा महिला पुरुष चेहरों को अप्रासंगिक कर देगा।
आरक्षण घोषित होने के बाद बदलाव के दूसरे फेज पर काम होगा। दूसरे फेज में तय होगा कि अगर सामान्य वर्ग के तहत ही बदलाव आना है तो प्रतिनिधित्व किस बिरादरी को दिया जाएगा। और अगर आरक्षण के तहत बदलाव लाना है तो किस बिरादरी को प्रतिनिधित्व जा रहा है। साहेबान तय मानिए कि बदलाव चाहे जिस सूरत में हो पार्टी में चेहरों का पैनल बन चुका है और इसमें तीन ही चेहरे हैं। पार्टी में दावेदार चाहे जितने हों विचार केवल तीन में से एक को चुनने पर ही होगा।