इस बार निकाय चुनाव की पटकथा लिख पाएगा यह ख़ांटी संघी चेहरा?

एम हसीन

रुड़की। भाजपा-संघ की राजनीति में मयंक गुप्ता की उपस्थिति इन दिनों नगण्य दिखाई दे रही है। भाजपा की डाटा समिति के अध्यक्ष मयंक गुप्ता कभी दिखते भी हैं तो उन्हीं कार्यक्रमों में दिखते हैं जिनके मुख्य अतिथि सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत हों। बाकी किसी मंत्री, सांगठनिक पदाधिकारी या जन प्रतिनिधि के साथ वे आमतौर पर दिखाई नहीं देते। नगर निगम चुनाव की जो राजनीति चल रही है उसमें खासतौर पर उनकी उपस्थिति कहीं दिखाई नहीं दे रही है। हद यह है कि मेयर पद के भावी भाजपा प्रत्याशी के तौर उनके नाम की चर्चा मीडिया में भी कहीं नहीं है, जबकि पिछली बार वे ही भाजपा प्रत्याशी थे। ऐसे में सवाल यह है कि महानगर की राजनीति के दृष्टिकोण से क्या उनकी प्रासंगिकता खत्म हो गई है? सवाल खासा प्रासंगिक है।

सर्वज्ञात है कि मयंक गुप्ता 2019 में महानगर में भाजपा के मेयर प्रत्याशी के रूप में सामने आए थे। उस समय भी राज्य में भाजपा की सरकार थी और त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री थे। त्रिवेंद्र सिंह रावत के विषय में यह मशहूर रहा है कि वे अपने संबंधों को हदों से आगे जाकर भी निभाते हैं और संबंधों को खत्म नहीं करते; न ही छुपाते हैं। मयंक गुप्ता के साथ उनके संबंधों की बानगी तब दिखाई दी थी। अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि तब मेयर चुनाव का कार्यक्रम राज्य सरकार या निर्वाचन आयोग ने नहीं बल्कि मयंक गुप्ता ने ही तय किया था। उन्हीं की जरूरत के हिसाब से सबकुछ हुआ था। हद यह हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर सुनवाई जारी रहने के बावजूद सरकार ने अपने ही परिसीमन के आधार पर चुनाव कराया था और इस मामले में किसी चीज की परवाह नहीं की थी। शायद यही कारण था कि परिणाम की पटकथा मयंक गुप्ता नहीं लिख पाए थे। यह पटकथा लिखी थी भाजपा में उनके मित्रों और विरोधियों ने। उनके मित्रों और विरोधियों ने भाजपा में बगावत कराकर गौरव गोयल को निर्दलीय चुनाव लड़ाया था और उन्हें मेयर बना दिया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मयंक गुप्ता ने तब अपनी ताकत दिखाई थी और उनके मित्रों और विरोधियों ने अपनी ताकत दिखा दी थी।

अब एक बार फिर मेयर चुनाव सामने है। हालांकि पिछले 5 सालों में स्थितियां खासी बदल चुकी हैं लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मयंक गुप्ता के प्रभाव का सूरज डूब चुका है यानि हालात मयंक गुप्ता के प्रतिकूल हैं। त्रिवेंद्र सिंह रावत जब लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए आए थे तब उन्होंने रुड़की में मयंक गुप्ता को ही अपना प्रभारी बनाया था, बावजूद इस सच के कि नगर विधायक प्रदीप बत्रा या पूर्व सांसद डॉ रमेश पोखरियाल निशंक सहित रुड़की नगर में आवासित या रुड़की सहित देश-प्रदेश की राजनीति में गहरा हस्तक्षेप रखने वाले भाजपाइयों के साथ मयंक गुप्ता के संबंधों में कोई बदलाव नहीं आया था। भाजपाईयों के साथ उनके “36” या “तिरसठ” संबंध तब भी कायम थे। कहने का मतलब यह है कि यह जोखिम बराबर था कि मयंक गुप्ता की अगुवाई में त्रिवेंद्र सिंह रावत का चुनाव परिणाम भी वही हो सकता था जो 2019 में खुद मयंक गुप्ता का रह चुका था। हालांकि दोनों के लिए संतोष की बात यह रही थी कि त्रिवेंद्र सिंह रावत ने जोखिम लिया था तो मयंक गुप्ता ने भी वह परिणाम दिया जिससे उनका सम्मान सांसद की निगाह में बढ़ा। यहां त्रिवेंद्र सिंह रावत 10 हजार से अधिक वोटों से जीतकर निकले। जाहिर है कि इससे मयंक गुप्ता के रुतबे का सम्मान बचा और त्रिवेंद्र कैंप में उनके लिए संभावनाएं बढ़ी। यह भी अहम है कि जैसे नरेश बंसल को भाजपा सरकार में पहले कैबिनेट मंत्री का दर्जा और फिर राज्यसभा सीट के अलावा राष्ट्रीय पार्टी संगठन में सह-कोषाध्यक्ष का पद मिला है, वैसे मयंक गुप्ता को अभी पार्टी की ओर से कुछ नहीं मिला है। न उन्हें राज्य सरकार ने कुछ दिया है और न ही केंद्र सरकार ने। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि पार्टी हमेशा उनकी अनदेखी करे। कुछ तो उन्हें मिलेगा ही। लेकिन “वह कुछ” क्या मेयर का टिकट हो सकता है? सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि खुद मयंक गुप्ता क्या इस बार फिर अपने लिए टिकट चाहते हैं या नहीं? हालात का इशारा तो यही है कि एक बार फिर निकाय चुनाव की पटकथा वे ही लिख रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो आरक्षण की धमकी के तहत चुनाव लगातार टलते न चले जाते। इशारा यह है कि भाजपा बनिया फैक्टर को नजर अंदाज नहीं कर पा रही है और बनियों में त्रिवेंद्र सिंह रावत के ताज का कोहिनूर अभी भी मयंक गुप्ता ही बने हुए हैं, यह हाल ही में एक बड़े भाजपा पदाधिकारी ने मुझे बताया है।