गांधी जयंती से लेकर ड्राई डे के फलसफे तक

एम हसीन

मेरे मित्र श्री गोपाल नारसन सकारात्मक पत्रकारिता के पक्षधर हैं इसलिए पत्रकारिता को आजकल वे ब्रह्मकुमारी के मंच से लोगों तक पहुंचा रहे हैं। लेकिन उनकी शुरुआत भी उसी प्रकार रिपोर्टर के रूप में हुई थी जिस प्रकार मेरी। तब सकारात्मक या नकारात्मक पत्रकारिता का कोई सवाल नहीं था। इसी कारण, अपना वर्तमान कर्म करते समय श्री गोपाल नारसन के भीतर भी पुराने जज्बे पैदा हो जाते हैं और वे शब्दों के, विचारधाराओं के, महत्वकांक्षाओं के, खुशगहमियों के और मुसाहिबी के जाल में उलझे बगैर कभी कोई बात सीधे सीधे तौर पर भी कह जाते हैं। उन्होंने गांधी जयंती के अवसर पर गांधी जी को समर्पित लेख लिखा है, “आसान नहीं था महात्मा गांधी बन जाना।” लेख में उन्होंने गांधी जी के विषय में अन्य महापुरुषों के विचारों को समाहित किया है। लेख मेरे अखबार में भी छपा है इसलिए मैं ने भी उसे पढ़ा है।

मैं आमतौर पर व्यक्तित्वों के विषय में नहीं लिखता; लिख सकता हूं लेकिन नहीं लिखता, क्योंकि मेरे नजदीक पत्रकारिता के मानदंड कुछ और हैं जिन्हें श्री गोपाल नारसन समेत मेरे साथी पत्रकार भी नकारात्मक पत्रकारिता मानते हैं। लेकिन मैं आज गांधी जयंती के मौके पर कुछ लिखने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूं। सो पेश है :

गांधी गिरी, यह भी तो कमाल है कि गांधी दर्शन पर नहीं, गांधीवाद पर नहीं बल्कि गांधी गिरी (पता नहीं इसका क्या अर्थ होता होगा), पर आधारित मशहूर फिल्म “लगे रहो मुन्ना भाई” का वह प्रसंग मुझे बहुत आकर्षित करता है जिसमें एक गुंडा एक रेडियो जाकी की आवाज पर फिदा हो जाता है और जब वह उससे मिलने की कोशिश करता है तो शर्त बन जाती है उसका गांधी दर्शन का जानकार होना। लेकिन गुंडा तो गुंडा है, अशिक्षित है, अपसंस्कृत है, समाज का अवांछित तत्व है। वह गांधी दर्शन को तो क्या गांधी को ही नहीं जानता। वह अपने ही जैसे अपने एक दोस्त से जब गांधी जयंती अर्थात 2 अक्टूबर के विषय में पूछता है तो वह 2 अक्टूबर का मतलब बताता है “ड्राई डे।” यानि मदिरा प्रतिबंध दिवस। मेरी निगाह में गांधी गिरी या गांधीवाद या गांधी दर्शन पर इससे ज्यादा लोमहर्षक लेकिन इससे बेहतर टिप्पणी नहीं हो सकती। कारण यह है कि यह फिलॉस्फी गांधी दर्शन के ऐन उलट है। गांधी दर्शन, जैसा कि मैं समझता हूं, कहता है कि व्यक्ति को अपने दायित्वों और अपने अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए। उसके भीतर जागरूकता होनी चाहिए। लेकिन देश के एक बहुत बड़े वर्ग के लिए बात जब इतने पर आकर ठहर जाए कि गांधी जयंती का मतलब केवल ड्राई डे है तो समझा जा सकता है कि गांधी समाज के भीतर कितना उतरे हैं। वे कितना आम आदमी के निकट पहुंचे हैं और कितनी उनकी स्वीकार्यता हुई है।

शायद दो दशक पुरानी बात है जब ब्रिटेन सरकार ने महात्मा गांधी को एक नए खिताब से नवाजा था। उन्होंने कहा था कि गांधी “मैन ऑफ द मिलेनियम” हैं। सब जानते हैं न कि गांधी ने भारत को ब्रिटेन के ही कब्जे से आजाद कराया था, वे अंग्रेज ही थे जिनके इकबाल का सूरज तभी गुरूब हुआ था जब गांधी दर्शन आम हुआ था। अंग्रेजों के विषय में यह आम कहा जाता है कि उनके शासनकाल में सूरज नहीं डूबता था। उनका एंपायर इतना बड़ा था कि कहीं न कहीं सूरज निकला ही रहता था। इन्हीं अंग्रेजों को तब केवल भारत से ही अपने शामियाने नहीं उठाने पड़े थे बल्कि और भी कई देशों से उनका शासन खत्म हो गया था और दुनियाभर में खत्म हो गई थी साम्राज्यवाद की अवधारणा। बदलाव इतना आया था कि इतिहास का “ग्रेट ब्रिटेन” आज यूरोप का अन्य देशों जैसा एक देश मात्र रह गया है। यह सब गांधी दर्शन के आम होने के बाद ही हुआ था।

ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि अंग्रेज गांधी के विरुद्ध होते; उनकी आलोचना करते, उन्हें बुरा भला कहते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा। उन्होंने गांधी को मैन ऑफ द मिलेनियम कहा। जब उन्होंने यह कहा तो जाहिर है कि एक सहस्त्राब्दी में ब्रिटेन में जन्मे सभी दर्शनशास्त्रियों, योद्धाओं, साम्राज्यवादियों को भी उन्होंने गांधी से नीचे की कैटेगरी में तस्लीम किया। वहां कोई मैन ऑफ द डिकेड हो गया तो कोई मैन ऑफ द सेंचुरी हो गया। साथ ही गांधी मैन ऑफ द मिलेनियम हो गए। इसे खुद अंग्रेजों ने ही तस्लीम कर लिया।

अंग्रेज बहुत होशियार कौम है। जाहिर है कि उन्होंने यह सब बेवजह तो नहीं किया होगा! वजह तो कोई रही ही होगी। वे इन सारी सच्चाइयों से वाकिफ हैं। लेकिन इन सच्चाइयों पर चर्चा करना उनका उद्देश्य नहीं है। यही वह बिंदु है जिसपर मुझे आपत्ति है। मेरा मानना है कि गांधी के व्यक्तित्व को किसी भी समय सीमा, भले ही वह हजार वर्ष की ही क्यों हो, में बांधने का कोई मतलब ही नहीं है। मेरा विचार यह है कि गांधी का मूल्यांकन “मैन” के रूप में किया जाना ही गलत है। मेरी निगाह में गांधी व्यक्तित्व से ऊपर उठे हुए हैं। मेरी निगाह में उनका दर्शन उनके व्यक्तित्व से भी ऊपर है। वे जीवन दर्शन हैं, वे शासन दर्शन हैं, वे सत्य और अहिंसा का ही संदेश नहीं देते बल्कि वे संपूर्ण मानव निर्माण का दर्शन आम करते हैं। वे ऐसा दर्शन देते हैं जिससे विकास, उन्नति, प्रगति की अवधारणा मानवीय मूल्यों के आधार पर निर्धारित होती है। इसलिए मेरी निगाह में गांधी के व्यक्तित्व पर चर्चा किया जाना अहम नहीं है बल्कि गांधी को जिया जाना अहम है। लेकिन गांधी को जिया कैसे जा रहा है इसी का प्रमाण “ड्राई डे” फिलॉस्फी है।

अहमियत इस बात की है जिस बात को अंग्रेज समझता है उसे हम भी समझते हैं। अहमियत इस बात की है कि जिस प्रकार अंग्रेज गांधी दर्शन पर उनके व्यक्तित्व को बड़ा करते हुए उन्हें बकायदा खिताब देकर छोटा करने की कोशिश करता है, एक सर्व प्रासंगिक दर्शन को पढ़ने लायक मात्र दर्शन बनाकर उसे छोटा करने की कोशिश करता है उसी प्रकार हम समाज को गांधी दर्शन के नाम पर महापुरुषों की टिप्पणियों मात्र से बहलाने की कोशिश करते हैं। कारण यह है कि गांधी के बाद गांधी की प्रशंसा करने वाले लोगों ने भी गांधी को जीने की कोशिश तो नहीं की। की होती तो लोगों को, गुंडों को भी पता होता कि 2 अक्टूबर ड्राई डे नहीं बल्कि मानव बनने की दिशा में जाने के लिए संकल्प धारण करने का दिवस है। जाहिर है कि मेरी इस सोच से कितने लोगों की सहमति है? निरंतर होते मूल्यों के ह्रास के मद्देनजर अगर यह उम्मीद की भी जाए कि कभी गांधी दर्शन व्यवहारिक रूप लेगा भी तो, मिर्जा गालिब के शब्दों में, यही कहा जा सकता है कि “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक!”