रुड़की में ठिठकी हुई है निकाय चुनाव की रफ्तार
एम हसीन
रुड़की। राज्य सरकार ने हाई कोर्ट में शपथ पत्र के माध्यम से निकाय चुनाव का कार्यक्रम दाखिल करके इस मामले को रफ्तार देने की कोशिश की है। लेकिन चूंकि अभी आरक्षण की घोषणा नहीं हुई है इसलिए रुड़की में गतिविधियां रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है। हालांकि कई ऐसे चेहरे भी हैं जिन्होंने अपनी दावेदारी की घोषणा कर दी है लेकिन अधिकांश दावेदार खामोश रहकर सांस थामकर पहले आरक्षण की घोषणा का इंतजार कर रहे हैं। वैसे अगड़े पिछड़े और दलित वर्ग के कई चेहरे तो ऐसे भी हैं जिन्होंने हर हाल में चुनाव लड़ने का इरादा कायम किया हुआ है; अर्थात अगर पद सामान्य रहता है तो भी बहुत मुमकिन है कि कोई बहुत दमदार पिछड़ा या कोई बहुत दमदार दलित प्रत्याशी मैदान में आ जाए।
रुड़की निकाय प्रमुख पद को लेकर आरक्षण का मामला उच्च स्तर पर हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन यह भी सच है कि किसी न किसी कारण यहां आरक्षण हर बार टलता ही रहा है। लेकिन इस बार लग रहा है कि मेयर पद आरक्षण की चपेट में आ ही रहा है; हालांकि अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि आरक्षण सामान्य महिला के लिए होगा, पिछड़े वर्ग के लिए होगा, पिछड़े वर्ग की महिला के लिए होगा, दलित वर्ग के लिए होगा या फिर दलित वर्ग महिला के लिए होगा। यही वह स्थित है जिसके चलते हैं अभी तक पद के विभिन्न दावेदार अपने पंखों को खोलकर उड़ान नहीं भर पा रहे हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि नगर में मेयर पद के दावेदारों की संख्या कम है। अगर प्रमुख राजनीतिक दलों, यथा भाजपा और कांग्रेस, की बात की जाए तो इनमें ही मेयर टिकट के दावेदारों की तादाद हर वर्ग में बेहिसाब है। मसलन, भाजपा में पद सामान्य रहने की स्थिति में कई वैश्य, कई पंजाबी, कई ब्राह्मण और राजपूत आदि अगड़े वर्ग के लोग टिकट के दावेदार हैं। इसी प्रकार अगर पिछड़े वर्ग के लिए पद आरक्षित होता है तो इस वर्ग की विभिन्न जातियों, यथा सैनी, गुर्जर, धीमान, प्रजापति, पाल, कश्यप, जाट व रोड आदि के अनेक दावेदार मौजूद हैं। अगर पद दलित वर्ग के लिए आरक्षित होता है तो भी भाजपा में टिकट के कई दावेदार हैं।
कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस में है। लेकिन जब तक आरक्षण की घोषणा नहीं हो जाती तब तक किसी के लिए भी अपनी गतिविधियों को सक्रियता प्रदान करना मुश्किल हो रहा है। जैसा कि सब जानते हैं कि पद अगर दलित वर्ग के लिए आरक्षित हुआ तो उस पर कोई अगड़ा तो क्या पिछड़ा भी चुनाव नहीं लड़ पाएगा। इसी प्रकार अगर पिछड़ा वर्ग के लिए पद आरक्षित होता है तो कोई दलित या अगड़ा वर्ग का कोई प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ पाएगा। अलबत्ता अगर पद सामान्य रहता है तो उस पर सबको चुनाव लड़ने की छूट रहेगी। अभी तक पद के कभी भी आरक्षित ने हो पाने का परिणाम रहा है वह यह है कि किसी प्रभावशाली पिछड़े या दलित ने यहां चुनाव लड़ने की या तो कोशिश नहीं की या फिर मतदाता ने ही ऐसे किसी प्रत्याशी को कोई खास महत्व नहीं दिया अर्थात पद के सामान्य रहने की स्थिति में मतदाता ने भी सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों में ही अपना प्रतिनिधि चुनना पसंद किया।लेकिन पिछली बार हालत में थोड़ा परिवर्तन भी आया था। मसलन, पिछले चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर पूर्व सांसद राजेंद्र बाड़ी ने चुनाव लड़ा था जो की आरक्षित वर्ग से आते हैं। हालांकि चुनावी मुकाबले में उनका स्थान चौथा रहा था और तब बहुत अधिक प्रभावशाली उनके परिणाम को नहीं माना गया था लेकिन उनके चुनाव लड़ने में यहां सामान्य सीट पर भी दलित वर्ग से आने वाले राजनीतिज्ञ के मन में एक इच्छा पैदा कर दी थी। इसी प्रकार पिछले चुनाव में पिछड़े वर्ग की सैनी बिरादरी से आने वाले सुभाष सैनी ने अपनी उम्मीदवारी दर्ज कराई थी। तब भले ही उन्हें भी निर्णायक स्थिति में मतदाता का समर्थन हासिल नहीं हुआ था। फिर भी उनका प्रदर्शन इतना प्रभावशाली तो रहा था कि यहां सामान्य सीट पर भी पिछड़े वर्ग के लोगों के मन में चुनाव लड़ने की इच्छाएं बलवती हुई थी। शायद इसी चुनावी स्थिति का परिणाम है कि इस बार भाजपा के अशोक चौधरी ने सीट के सामान्य रहने की स्थिति में भी भाजपा के टिकट पर दावेदारी करने की घोषणा की हुई है। ऐसे में हो यह भी सकता है की सीट सामान्य रहने की स्थिति में भी भले ही कांग्रेस और भाजपा किसी पिछड़े या दलित वर्ग के व्यक्ति को अपना प्रत्याशी ना बनाए, लेकिन स्वाभाविक रूप से निर्दलीय रूप से किसी पिछड़े या दलित को चुनाव लड़ने से तो कोई रोक नहीं पाएगा। तब यह भी हो सकता है कि कोई पिछड़ा या दलित ही सामान्य सीट पर भी इस बार चुनाव लड़ने के लिए खम ठोक कर मैदान में आ जाए।