जद्दो जहद में तो लगा है कांग्रेस का यह बूढ़ा योद्धा

एम हसीन

देहरादून। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने जीवन में इतनी नाकामियों का सामना किया है कि संघर्ष उनकी आदत बन गया है। अब वे जीवन के 8वें दशक में हैं, लेकिन उनकी सक्रियता लगभग उतनी ही है जितनी उनके मुकाबले बेहद युवा किसी भी बड़े कांग्रेसी की। अब इसे क्या कहा जाए कि उन्होंने पिछले 8 साल में लगातार राजनीतिक नाकामियों का सामना किया है; फिर भी न उनका हौसला टूटा है और न उनकी क्षमताएं प्रभावित हुई हैं। वे 2017 में मुख्यमंत्री रहते हुए दो सीटों पर विधानसभा चुनाव हारे। फिर 2019 में नैनीताल सीट पर लोकसभा चुनाव हारे। फिर 2022 में लाल कुंआ सीट पर विधानसभा चुनाव हारे और 2024 में हरिद्वार सीट पर लोकसभा चुनाव, हालांकि प्रत्याशी उनके पुत्र वीरेंद्र रावत थे लेकिन चुनाव वे ही लड़ रहे थे, हारे। और अब 2027 की तैयारी में इतना सक्रिय तो शायद और कोई भी कांग्रेसी नहीं होगा जितना वे हैं। यह अलग बात है कि बीच में निकाय चुनाव और पंचायत चुनाव भी होना है। ऐसे में सवाल यह है कि हरीश रावत क्या 2027 का मोर्चा फतह कर पाएंगे?

जहां तक सवाल 2024 का है, बेशक भाजपा ने सूबे की सभी पांचों सीटें जीती थी और हारने वालों में हरीश रावत भी थे। लेकिन यह भी सच है कि चुनाव का परिणाम चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर बदला तो उसका असर राज्य के हालात पर भी पड़ा और विधानसभा की दो सीटों पर हुए उप चुनाव में भाजपा को पराजय मिली। इसलिए हरीश रावत की उम्मीदें इस बात से जुड़ना लाजमी है कि 2027 तक भाजपा की अनवरत सत्ता को 10 साल हो चुके होंगे और वे सत्ता के विरोध को हवा देकर अपना रास्ता निकाल लेंगे। बेशक ऐसा हो सकता है। लेकिन इस मामले में 2022 के अनुभव को याद रखा जाना जरूरी है। ध्यान रहे कि 2022 में मतदान होने की तिथि तक लगातार पिछड़ती महसूस हो रही भाजपा को एकाएक 57 विधानसभा सीटों पर जीत मिल गई थी और उसने उत्तराखंड की सत्ता में दोबारा आने का इतिहास रचा था। ऐसा निश्चित रूप से इसलिए हुआ था क्योंकि मुख्यमंत्री पद पर हरीश रावत की दावेदारी को कमज़ोर करने का कोई तरीका राज्य की कांग्रेस के किसी चेहरे की समझ में नहीं आ रहा था। अहम बात यह है कि कांग्रेस में आज हालात कोई बदल नहीं गए हैं। अगर वही हरीश रावत हैं तो वही प्रीतम सिंह भी हैं; वही यशपाल आर्य भी हैं, वही रंजीत रावत भी हैं, वही नवप्रभात भी हैं और वही गणेश गोदियाल भी हैं जो 2022 में प्रदेश अध्यक्ष थे। कोई इजाफा है तो यह कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करण माहरा के रूप में एक नये योद्धा के रूप में इजाफा है। हरीश रावत के संदर्भ में कुछ और महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। 2022 के चुनाव से ऐन पहले तक वे पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की निगाह में चढ़े हुए थे, वे उस समय राष्ट्रीय महासचिव और पंजाब के पार्टी प्रभारी थे। लेकिन फिलहाल वे कहीं नहीं हैं। न राष्ट्रीय महासचिव हैं और न ही किसी राज्य के प्रभारी हैं। वे पार्टी संसदीय बोर्ड के सदस्य भी नहीं हैं। दूसरी, इससे भी बड़ी बात यह है कि 2022 तो क्या 2024 के लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस में राहुल गांधी कमज़ोर थे, अपनी ही पार्टी के नेताओं के दबाव में थे जबकि आज वे नए आत्मविश्वास से लबरेज हैं। आज उन्हें कांग्रेसियों के मुकाबले तो क्या भाजपा के, केंद्रीय सत्ता के मुकाबले भी कमज़ोर नहीं माना जा सकता। कुल मिलाकर कहें तो दिल्ली कांग्रेस में फिलहाल हरीश रावत के लिए हालात साजगार नहीं हैं।

दूसरी ओर स्थिति राज्य की है। यहां पार्टी की अगुवाई बेशक करण माहरा कर रहे हैं और उन्हें राहुल गांधी का सीधा वरद हस्त भी प्राप्त है। बेशक करण माहरा राज्य के कांग्रेसियों, यथा यशपाल आर्य, प्रीतम सिंह, रंजीत रावत, गणेश गोदियाल आदि से भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन करण माहरा की मजबूरी यह है कि वे चाहकर भी हरीश रावत के प्रति नरम रवय्या अख्तियार नहीं कर सकते। इसलिए असल सवाल यह नहीं है कि हरीश रावत भाजपा के मुकबले कुछ कर पाएंगे या नहीं! सवाल यह है कि वे दिल्ली व देहरादून की कांग्रेस के भीतर अपने अनुकूल माहौल बना पाएंगे या नहीं! उनके लिए 2027 का रास्ता तभी आसान होगा जब राहुल गांधी के कैंप में उनके लिए हालत बेहतर हों।