जातियों के पैरोकार बन जाते हैं वर्ग के प्रतिनिधि
एम हसीन
हरिद्वार। राजनीति कितनी निर्मम होती है इसका अनुमान केवल इस बात से नहीं होता कि 2022 के विधान सभा चुनाव में हरिद्वार देहात पर तत्कालीन कैबिनेट मंत्री स्वामी यतीश्वरानंद चुनाव हार गए थे। इसका अनुमान इस बात से भी होता है कि लक्सर सीट पर तत्कालीन विधायक संजय गुप्ता भी चुनाव हार गए थे। अब कोई पूछे कि स्वामी यतीश्वरानंद तो इसलिए हार गए थे क्योंकि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की अगुवाई में हरिद्वार जिले में पिछड़ा राजनीति को बल दे रहे थे, उसे खाद पानी दे रहे थे, लेकिन संजय गुप्ता क्यों हार गए थे? वे तो पिछड़ा वर्ग से आते नहीं हैं। इसका एक ही जवाब है। जैसे प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री की पिछड़ा राजनीति को लेकर सोच स्पष्ट है वैसे ही पिछड़ा राजनीति के विरोधी पुरोधाओं की सोच भी स्पष्ट है। शह मात के इस खेल में अपने पिछड़ा वजीर को पिटवाने के लिए उसके संगी साथियों को भी पिटवाना पड़े तो गुरेज नहीं होता। इसमें अंतिम उद्देश्य चुनावी जीत नहीं बल्कि लक्ष्य की प्राप्ति होती है और धर्म, वर्ग, जाति आदि सब कुछ उपकरण के रूप में काम करते हैं। अहमियत इस बात की है कि वर्ग के संघर्ष में अगड़ा वर्ग धर्म को आड़े नहीं आने देता लेकिन पिछड़ा वर्ग कभी वर्ग का संघर्ष करता ही नहीं। वह या जाति का संघर्ष करता है या धर्म का।
मिसाल हाल के मंगलौर उप चुनाव के परिणाम की दी जा सकती है। मंगलौर सीट पर अगर भाजपा का उद्देश्य अगर निश्चित चुनाव जीतना होता तो पार्टी किसी प्रभावशाली ब्राह्मण प्रत्याशी को मैदान में लाती और श्योर विन साबित होती, क्योंकि तब उसका कार्ड पिछड़ा वर्ग का नहीं बल्कि अगड़ा वर्ग का होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पार्टी का उद्देश पिछड़ा वर्ग को ही संरक्षण देना था इसलिए यहां प्रत्याशी करतार सिंह भड़ाना को पिछड़ा वर्ग प्रतिनिधि के रूप में मैदान में लाया गया था। लेकिन उनकी विडंबना यह रही कि वे अपनी जातीय पहचान, गुर्जर, से बाहर नहीं आ पाए। यही स्थिति बसपा के पिछड़ा प्रत्याशी उबेदुर्रहमान अंसारी उर्फ मोंटी की रही। वे भी जुलाहा बिरादरी के प्रत्याशी माने गए। भड़ाना की दूसरी विडंबना यह रही कि उनके प्रबंधकों ने उन्हें आवरण ओढ़ा दिया धर्म का, हिंदुत्व का। बेशक इसका उन्हें लाभ हुआ और उनका ग्राफ बहुत ऊपर गया लेकिन इसका धार्मिक आधार पर जो लाभ मोंटी को मिलना चाहिए था वो न केवल उन्हें नहीं मिला बल्कि उन्हें इसका नुकसान हुआ। उनका ग्राफ बहुत नीचे आ गया। इसके विपरीत पिछड़ा वर्ग विरोधी लॉबी का लक्ष्य साफ था। उन्होंने बड़ी खामोशी से जातीय पहचान से ऊपर धर्म की पहचान रखने वाले कांग्रेस प्रत्याशी को फोकस में ला दिया और अंतिम समय पर ऐसे हालात पैदा कर दिए कि अगर भड़ाना चुनाव जीत जाते तो उन्हें तो एक जीत मिल जाती लेकिन सरकार की विश्वसनीयता, लोकतंत्र के प्रति उसकी निष्ठा और देश की संवैधानिक मर्यादा आदि तमाम बड़ी मान्यताएं, जनता द्वारा सब कुछ कमज़ोर मान लिया जाता। अनुमान लगाया जा सकता है कि राज्य की 70 में से महज एक सीट के उप चुनाव के परिणाम पर कितना कुछ दांव पर लगा हुआ था! लेकिन असल में वहां मसला वर्ग संघर्ष का था। यही दरअसल, राजनीति की निर्ममता का उदाहरण है। ऐसे में सवाल यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की पिछड़ा मुहिम रंग लाए तो कैसे लाए?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा केंद्रीय स्तर पर पिछड़ा राजनीति को खुलकर प्रश्रय दे रही है। यह तब भी जाहिर हुआ था जब पुष्कर सिंह धामी -1 सरकार में मदन कौशिक को कैबिनेट से हटाकर स्वामी यतीश्वरानंद को लाया गया था। वे पिछड़ा वर्ग से आते हैं। फिर और भी तमाम काम हुए। जैसे कि भाजपा की संगठन को प्राथमिकता देने की प्राथमिकता है, पार्टी के रुड़की जिलाध्यक्ष शोभाराम प्रजापति को आम देखा जा सकता है, पार्टी के बड़े पदाधिकारियों और मुख्यमंत्री सहित तमाम जन प्रतिनिधियों के साथ अगली पांत में मंच पर। यही स्थिति टिकटों की है। 40 सदस्यीय रुड़की नगर निगम बोर्ड में पिछड़ा वर्ग की विभिन्न जातियों से आने वाले पार्षदों की संख्या थोक में है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि रुड़की नगर में आधी आबादी तो पिछड़ों की ही है। इसके बावजूद वह उद्देश्य हासिल नहीं हो पा रहा है, जिसके लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की टीम प्रयास कर रही है। पार्टी जिन लोगों को पिछड़ा वर्ग प्रतिनिधि बनाकर भेजती है वे पहली फुरसत में अपनी जाति का प्रतिनिधि बन जाते हैं। शहरी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी विडंबना पूर्ण है। यहां पिछड़ा वर्ग के भीतर चुनाव लड़कर राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की तड़प नहीं है बल्कि सत्ता का सहारा लेकर राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना उद्देश्य होता है। वह भी गैर प्रोफेशनल पिछड़े लोगों में। इस वर्ग के प्रोफेशनल्स अर्थात, डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, इंडस्ट्रियलिस्ट्स, बिजनेसमैन आदि का फोकस तो मुख्यत: उन संस्थाओं में प्रतिनिधित्व हासिल करने पर रहता है जो आमतौर पर भद्र समाज का फील्ड ऑफ फंक्शन है। अपने वर्गीय राजनीतिक संघर्ष को पलीता लगाकर इन संस्थाओं में पदाधिकारी मनोनीत होकर पिछड़ा वर्ग के प्रोफेशनल्स अपनी वर्गीय पहचान तक को याद नहीं करना चाहते। पिछड़ा राजनीति विरोधी शक्तियों को भी यही रास आता है, इसलिए जाहिर है कि वे इसे खुलकर संरक्षण देती हैं। ऐसे में मोदी धामी की मुहिम रंग लाए भी तो कैसे?