95 वर्षीय रामसिंह सैनी की सैनी आश्रम संरक्षक पद से विदाई यानी “बड़े बे आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले”

एम हसीन

रुड़की। रामसिंह सैनी ने सैनी आश्रम प्रबंध समिति के संरक्षक पद से इस्तीफा दे दिया है। यूं इस विवाद का पटाक्षेप हुआ है या नहीं यह अब देखा जाएगा। अहम सवाल यह है कि बिरादरी का अगुआ अब कौन? ध्यान रहे कि मामला किसी भी स्तर पर सामाजिक नहीं है। बात विशुद्ध राजनीति की है।

हरिद्वार जिले में सत्तारूढ़ दल के भीतर सैनी बिरादरी का जबरदस्त जलवा कायम है। दल ने सैनी बिरादरी को केवल राज्यसभा में ही प्रतिनिधित्व नहीं दिया बल्कि संगठन में पद भी दिया है और राज्य सरकार में बिरादरी के कम से कम एक चेहरे को दर्जा भी दिया है। इसके साथ ही कम से कम एक सैनी को हर चुनाव में विधानसभा टिकट देने का भाजपा का रिकॉर्ड भी बरकरार है। इसके बावजूद सैनी बिरादरी के भीतर बेचैनी है। बेचैनी है उस रुतबे को हासिल करने की जो उसका जिले में रह चुका है। इस रुतबे को हासिल करने के लिए पार्टी के कितने ही महत्वकांक्षी प्रयासरत भी हैं, संघर्षरत भी हैं। अब यह अलग मसला है कि उनके संघर्ष की दिशा क्या है और उसका निशाना कौन है! कोई बड़ी बात नहीं कि इसी से उनके संघर्ष का परिणाम भी तय होने वाला है। और परिणाम वही है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, अर्थात, सबकुछ होने के बावजूद कुछ नहीं।

ज्वालापुर स्थित बिरादरी के सैनी आश्रम के प्रबंध को लेकर जो विवाद लंबे समय से चल रहा था और जिसके परिणामस्वरूप बिरादरी के दिग्गज रामसिंह सैनी को इस्तीफा देना पड़ा है वह भी कहीं न कहीं इसी संघर्ष का एक हिस्सा है। चूंकि यह स्पष्ट नहीं है कि बिरादरी का संघर्ष रामसिंह सैनी के खिलाफ था सैनी आश्रम प्रबंध समिति के खिलाफ था इसलिए अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि रामसिंह सैनी के इस्तीफे के बाद विवाद समाप्त हो गया है। खासतौर पर इसलिए कि रामसिंह सैनी के इस्तीफे से उनका संबंध केवल सैनी आश्रम से खत्म हुआ माना जा सकता है। वे समाज के बीच सामाजिक या राजनीतिक रूप से भी अप्रासंगिक हो गए हैं यह अभी तय नहीं है। खासतौर पर इसलिए कि रामसिंह सैनी का सामाजिक और राजनीतिक वजूद कभी भी सैनी बिरादरी के समर्थन के बूते तय नहीं हुआ। यह या तो उस राजनीतिक दल के बूते तय हुआ जिसने उन्हें टिकट दिया या फिर उस समर्थन के बूते तय हुआ जो उन्हें समाज ने दिया और जिसमें सैनी बिरादरी का हिस्सा बहुत थोड़ा था।

सैनी बिरादरी को भाजपा समर्थक माना जाता है। बिरादरी मुखर रूप से भाजपा का समर्थन करती है। भाजपा भी बिरादरी का सम्मान करती है। लेकिन यह भी सच है कि उत्तराखंड विधानसभा में अभी सैनी बिरादरी को प्रवेश मिलना बाकी है। यह इसके बावजूद है कि भाजपा-कांग्रेस, सपा-बसपा समेत ऐसा कोई दल नहीं जिसने हर चुनाव में नियमित रूप से सैनी प्रत्याशी नहीं लड़ाए। यूं चुनाव लड़ने वाले लोगों में रामसिंह सैनी समेत बिरादरी के तमाम दिग्गज शामिल रहे हैं। लेकिन जीता कोई भी नहीं। इससे यह प्रमाणित होता है कि सैनी बिरादरी का कोई भी चेहरा सैनी होने के नाते चुनाव नहीं जीता। वह कभी कांग्रेस प्रत्याशी होने के नाते जीता तो कभी भाजपा प्रत्याशी होने के नाते और कभी सपा प्रत्याशी होने के नाते। इसके विपरीत उसकी हार जब भी हुई केवल उसके सैनी होने के नाते ही हुई। अन्य शब्दों में, इसे यूं कहा जा सकता है कि समग्र समाज में सैनी चेहरों का सैनी होना ही उनका वाटरलू बना। समाज के अन्य किसी भी वर्ग ने सैनी चेहरे को समर्थन नहीं दिया। इस स्थिति के बावजूद सैनी महत्वकांक्षी आज भी अपने सैनी होने को सर्वोपरि रखकर संघर्ष कर रहे हैं। उनके इसी दिशाभ्रम का परिणाम है कि उनके निशाने पर अपनी ही बिरादरी का वह वयोवृद्ध चेहरा है जो हमेशा सैनी प्रतिनिधित्व से कोरा होने के बावजूद सैनी आन-बान और शान का प्रतीक रहा, अर्थात रामसिंह सैनी।

इतिहास इस बात का गवाह है कि रामसिंह सैनी कभी भी सैनी बिरादरी का पसंदीदा चेहरा नहीं रहे। उनके वैभव की कहानी जब भी लिखी गई रुड़की के बनिया-पंजाबी और देहात के मुस्लिम मतदाता ने लिखी। यह अलग बात है कि रामसिंह सैनी अपनी बिरादरी के बीच अपनी जगह बनाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। सैनी आश्रम प्रबंध समिति में उनका मुख्य संरक्षक पद स्वीकार करना भी शायद उनकी ऐसी ही कोशिश का नतीजा था। लेकिन साफ लग रहा है कि उनकी यह कोशिश भी नाकाम ही रही है। जितना बे आबरू करके रामसिंह सैनी को इस पद से इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया है उतना बे आबरू करके तो बहादुर शाह जफर को भी अंग्रेजों ने रंगून नहीं भेजा होगा। बहरहाल, यूं सैनी बिरादरी ने एक फिर अपने वैभव की वापसी का दरवाजा बंद कर लिया है। यह तय है कि सैनी बिरादरी का वैभव कभी वापिस लौटेगा तो रामसिंह सैनी के दम पर ही लौटेगा। बाकी तमाम लोग रामसिंह सैनी के प्रति अपनी नापसंदगी को कहीं और कैश तो कर सकते हैं लेकिन बिरादरी का पुराना वैभव वापिस नहीं लौटा सकते, खासतौर पर इसलिए कि बिरादरी के दुर्भाग्य से आज डॉ पृथ्वी सिंह विकसित भी जीवित नहीं हैं।