इस बार निर्दलीय भी और अकेले अपने दम भी पर आ रहे मैदान में

एम हसीन

मंगलौर। डॉ शमशाद, निकाय चुनाव की बंदिशों में तकनीकी रूप से इस तरह बंधे हुए हैं कि वे खुद एक बार भी प्रत्याशी नहीं बन पाए। इसके बावजूद वे यहां निकाय के चुनाव तीन चुनाव कद चुके हैं और दो बार अध्यक्ष निर्वाचित हो चुके हैं। फिर कोई बड़ी बात नहीं कि वे निकाय चुनाव का, कम से कम फिलहाल तक तो, अपने-आप में एक ब्रांड, एक कोण बने हुए हैं। यह इसलिए कि पिछले 15 साल की अवधि में वे तीन चुनाव लड़ चुके हैं और अब चौथे चुनाव में वे फिर मैदान में हैं। सवाल यह है कि क्या वे इस चुनाव में खुद को साबित कर पाएंगे? वे उस रुतबे को कायम रख पाएंगे जिसने उन्हें यहां निकाय की राजनीति का ब्रांड बनाया है। देखना दिलचस्प होगा। कारण यह है कि इस बार चुनाव उन्हें चुनाव अपने चेहरे पर ही नहीं बल्कि अपने बूते पर भी लड़ना होगा। इस बार उनके पीछे न हाजी सरवत करीम अंसारी और उनकी अंसारी बिरादरी का थोक समर्थन मौजूद होगा और न ही क़ाज़ी निजामुद्दीन और उनका बेहद मजबूत गैर-अंसारी समर्थन मौजूद होगा। कुछ सकारात्मक उनके साथ होगा तो केवल यह कि विपक्ष में उनकी स्थिति अगर कमजोर है तो किसी और की भी मजबूत नहीं है। विपक्ष में जितने भी चेहरे हैं उन में से हर एक को अपने-आपको साबित करना होगा। सबके सामने मौजूद यही वह चुनौती है जो आज भी विपक्षी चेहरों की दौड़ में डॉ शमशाद को एक कदम आगे रखे हुए है।

गौरतलब है कि डॉ शमशाद सबसे पहले 2008 में नगर पालिका अध्यक्ष चुने गए थे। उस समय क़ाज़ी निज़ामुद्दीन बसपा की राजनीति करते थे और उन्होंने ही डॉ शमशाद को निकाय प्रमुख चुनवाया था। लेकिन 2013 के चुनाव तक बसपा की राजनीति में व्यापक बदलाव आया था। क़ाज़ी निज़ामुद्दीन बसपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए थे और डॉ शमशाद भी बसपा के दिग्गज हाजी मुहम्मद शहजाद के साथ चले गए थे। 2013 में कांग्रेस में क़ाज़ी निज़ामुद्दीन ने चौधरी इस्लाम के रूप में नया चेहरा आगे कर दिया था जबकि डॉ शमशाद बसपा के टिकट पर ही लड़े थे। हालांकि इस बार उन्हें अंसारी दिग्गज हाजी सरवत करीम अंसारी का सहयोग मिला था लेकिन उन्हें हारना पड़ा था। फिर 2018 के निकाय चुनाव के समय न हाजी सरवत करीम अंसारी बसपा में रह पाए थे और न ही डॉ शमशाद। इसी कारण उन्होंने यह चुनाव निर्दलीय लड़ा था लेकिन लड़ा हाजी सरवत करीम अंसारी की ही सरपरस्ती में था। इस बार फिर वे चुनाव फिर जीत गए थे। यह अलग बात है कि हाजी के साथ इस बार उनकी निभ नहीं पाई थी और उन्होंने फिर क़ाज़ी कैंप ज्वाइन कर लिया था। अलबत्ता क़ाज़ी इस बार प्रत्यक्ष रूप से उन्हें निकाय चुनाव नहीं लड़ा रहे हैं। क़ाज़ी के प्रत्यक्ष प्रत्याशी इस बार भी चौधरी इस्लाम ही हैं जो कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। अब हाजी सरवत करीम अंसारी भी दुनिया में नहीं हैं। इन दोनों कारणों के चलते डॉ शमशाद को इस बार चुनाव में केवल अपने ही दम कर खुद को साबित करना है। सवाल यह है कि क्या वे ऐसा करने में कामयाब रहेंगे? जाहिर है कि अगले तीन हफ्ते इस बात को साबित कर देंगे कि उनके इकबाल का सूरज वक्ती तौर पर बादलों में छुपा है या गुरूब ही हो चुका है!