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यह माना बन गई दुनिया फकत नक्कारखाना पर
है जिसकी बोलना फितरत वो कैसे चुप रहे बोलो।

एम हसीन

चाहे जिक्र नक्काखाने का हो, जो कि भारत की हकीकत है और चाहे व्हीसल ब्लोइंग की हो जो कि अंग्रेजियत का तरीका है, यह तो तय है अवाम खुद नहीं जागता। उसे जगाना ही पड़ता है। और हर दौर में जगाना पड़ता है। किसी को कोई ढोल बजाना पड़ता है, कोई नगाड़ा बजाना पड़ता है, कोई घंटी बजानी पड़ती है, कोई सीटी बजानी पड़ती है और यह पहल हर कोई नहीं करता।

वो किसी शायर ने कहा है न कि, “मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मखसूस होते हैं, ये वो नगमा है जो हर साज पै गाया नहीं जाता।” जैसे मुहब्बत है वैसे ही घंटी बजाना भी है, किसी काम की पहल करना भी है। जैसे किसी शायर ने कहा है कि, “ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजिए, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।” व्हीसल ब्लोइंग भी ऐसा ही काम है। यह भी आग का दरिया है और इसे डूब के पार करना पड़ता है। तभी तो खुसरो ने कहा है कि, “खुसरो दरिया इश्क का उल्टी वा की धार, जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।” कारण यह है कि व्हीसल ब्लोइंग का काम थोड़े से अंतर के साथ उस कीड़े जैसा है जो अपनी अगली नस्ल, अगले जन्म की, की बुनियाद रखते ही खुद खत्म हो जाता है। रति क्रिया के चरम पर पहुंचते पहुंचते जिसकी मादा ही उसका सिर चबा लेती है। लेकिन दुनिया यूं ही चलती है और सहस्त्राब्दियों से चलती आ रही है। अंतर केवल इतना है कि संतति को कायम रखने के लिए उपरोक्त कीड़े को अपनी जान देनी पड़ेगी, यह प्रारब्ध तय करता है लेकिन अपना ऐसा ही कोई अंजाम व्हीसल ब्लोअर को खुद तय करना पड़ता है। व्हीसल ब्लोइंग की यह पहल उसे अपने दम पर, अपनी सोच से करनी पड़ती है। व्यक्ति चाहे तो यह पहल न करे। उसकी संतति फिर भी चलती रहेगी, क्योंकि प्रारब्ध ने आदमी का को सोच विचार की शक्ति देकर उसके मामले में अपने अधिकार सीमित कर लिए हैं। उसने कीड़े की तरह आदमी के विषय में यह तय नहीं किया है कि उसे रति क्रिया के दौरान अपनी जान हर हाल में देनी ही पड़ेगी। प्रारब्ध ने व्यक्ति को सोच दी है। इसी कारण उससे यह अपेक्षा भी की है कि “लाख जौहर हों आदमी में मगर, आदमियत नहीं तो कुछ भी नहीं।” इसी बिंदु पर आकर गालिब के इस शेर की वास्तविकता महसूस होती है कि, “कुछ तो कहिए कि लोग कहते हैं। आज गालिब गजल सरा न हुआ।” इस शेर से यह तय होता है कि समाज की व्यक्ति से कुछ अपेक्षाएं होती ही हैं। अर्थात आदमी को अपने आदमी होने का प्रमाणित करना पड़ता है। खुद को साबित करना पड़ता है। मसलन, इंजीनियर से यह अपेक्षा होती ही है कि वह निर्माण करे, चिकित्सक से यह अपेक्षा होती ही है कि वह इलाज करे। इसी प्रकार शायर से यह अपेक्षा होती ही है कि वह गजल कहे। ठीक इसी प्रकार व्हीसल ब्लोअर से यह अपेक्षा होती है कि वह सीटी बजाए। तब व्यक्ति को समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरकर दिखाना पड़ता है। फिर मुश्किल या आसानी का सवाल नहीं होता। फिर मसला होता है कि, “उसूलों पर जो आंच आए तो टकराना जरूरी है, जो जिंदा हैं तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है।” व्हीसल ब्लोइंग ऐसा काम है जिसमें हार और जीत का सवाल नहीं होता। जैसा कि किसी शायर ने कहा है कि, “गिरते हैं शह सवार ही, मैदान ए जंग में, वो तिफ्न क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले।” क्यों? क्योंकि सवाल हार जीत का है ही नहीं। जैसा कि वो एक शायर कहते हैं कि, “कत्ल ए हुसैन असल में मर्ग ए यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद।” सो फ्रेंड्स लेट्स ब्लो व्हीसल! क्योंकि दिनकर ने कहा है, “समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।” और फिर क्या यह सच नहीं है कि, “सितारों से आगे जहां और भी हैं, अभी इश्क के इम्तेहां और भी हैं।”