वक्फ बोर्ड-मदरसा बोर्ड अध्यक्ष के ब्यान तो हर बार बढ़ा देते हैं भाजपा के प्रति मुस्लिम आशंकाएं

एम हसीन

देहरादून। उत्तराखंड में करीब आधा दर्जन मुस्लिम या अल्पसंख्यक संस्थाएं हैं जिनमें अल्पसंख्यक या मुस्लिम ही पदाधिकारी हैं। बेशक इनमें किसी की हैसियत अपनी संस्था में अपना एजेंडा लागू कर देने की नहीं है। लेकिन अपना एजेंडा लागू करने के लिए भाजपा इनकी मुहताज भी नहीं है। यह भी सच है कि अल्पसंख्यकों में कम से कम मुस्लिमों के तो भाजपा को वोट भी दरकार नहीं हैं। इसलिए मुसलमान का वोट हासिल करने के लिए भी भाजपा को इन पदाधिकारियों की आवश्यकता नहीं है। भाजपा में संघ की पृष्ठभूमि से आए एक बहुत बड़े पदाधिकारी ने आपसी बातचीत में उपरोक्त तमाम सच स्वीकार किए। उपरोक्त पदाधिकारी ने यह भी स्वीकार किया कि यदि सरकार अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ी सभी संस्थाओं से राजनीतिक- सामाजिक लोगों को हटाकर उनके स्थान पर सरकारी अधिकारियों को नियुक्ति दे दे तो भी उसका काम बदस्तूर जारी रह सकता है। इन हालात के बावजूद यदि भाजपा सरकार ने लगभग सभी अल्पसंख्यक संस्थाओं में राजनीतिक सामाजिक वर्ग से आने वाले संबंधित वर्गों के प्रतिनिधियों को नियुक्ति दी है, तो इसका कारण क्या है?

सत्तारूढ दल के गलियारों में सरकार की संवैधानिक बाध्यताओं से अलग हटकर इसके दो कारण बताए गए हैं। पहला यह कि पार्टी यह संदेश देना चाहती है कि वह लोकतांत्रिक मर्यादाओं के तहत काम करती है और उसका नारा “सब का साथ, सबका विश्वास, सबका विकास, सबका प्रयास” महज दिखावटी या नुमाइशी नहीं है। बेशक उसकी प्राथमिकताएं बहुसंख्यक समाज के हितों की रक्षा को लेकर है, लेकिन अल्पसंख्यक समुदायों की भी वह विरोधी नहीं है। दूसरा यह है कि वह अपने इन राजनीतिक अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों से अपेक्षा करती है कि वे भाजपा को लेकर मुस्लिम समुदाय के लोगों के मन में पैदा होने वाली आशंकाओं को कम करने का प्रयास करें और समाज में परस्पर विश्वास का रिश्ता कायम करने की कोशिश करें। सवाल यह उठता है कि भाजपा के अल्पसंख्यक पदाधिकारी क्या इन आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं? क्या वे भाजपा के किसी काम आ रहे हैं?

बेशक राज्य की कई अल्पसंख्यक संस्थाओं के पदाधिकारी अपने काम से कम रखते हुए दिखाई देते हैं और उनका प्रयास यही रहता है कि अपनी संस्था से संबंधित मामलों में वे अल्पसंख्यक समुदायों को सरकार से ऐसी सुविधा हर हाल में दिला सकें जिनके अल्पसंख्यक समुदाय अधिकारी हैं। मसलन, हज कमेटी अध्यक्ष का फोकस अपने काम पर रहता है और उनसे संबंधित खबर जब भी आती है तो वह हज यात्रा या उसकी तैयारी से जुड़ी हुई ही होती है। इसके विपरीत कुछ अल्पसंख्यक पदाधिकारी ऐसे हैं जिसे संबंधित खबर जब भी आती है तो वह एक नए विवाद को लेकर आती है। एक दो अल्पसंख्यक पदाधिकारी तो ऐसे हैं जो भाजपा के कट्टर भगवाधारी फायर ब्रांड नेताओं से भी अधिक आक्रामक भाषा अल्पसंख्यकों के मामले में बोलते हैं और यूं अपने ही समुदाय के बीच अपनी फजीहत तो कराते ही हैं; भाजपा के लिए भी मुश्किल पैदा करते हैं। साथ ही उन अपेक्षाओं को सिरे से पलीता लगा देते हैं जो इन अल्पसंख्यक पदाधिकारियों से की जाती हैं। अर्थात अल्पसंखयक संस्था पदाधिकारी के रूप में जिस काम का वेतन और अन्य सुविधाएं वे सरकार से लेते हैं ऐन उसके उलट काम करते दिखाई देते हैं। वे जब भी मीडिया के कैमरों के सामने या कलम के नीचे आते हैं, कोई न कोई नया विवाद पैदा कर जाते हैं; भाजपा को लेकर मुसलमानों के मन में नई आशंकाएं पैदा कर जाते हैं। अर्थात ये पदाधिकारी पार्टी की असेट्स की बजाय पार्टी की लाइबिलिटी साबित हो रहे हैं।