काम करने का नया ही ढब विकसित कर रहा यह कांग्रेस नेता

एम हसीन

रुड़की। कांवड़ सेवा शिविर के संदर्भ में नगर का जन कल्याण समर्पित संगठन “समर्पण” 25वें साल में एक नई संस्कृति का आभास दे रहा है। किसी ने गौर किया हो तो संगठन के अहम पदाधिकारियों ने इस वर्ष शिविर उद्घाटन के समय एक समान ड्रेस पहनी। जब राज्य सरकार समान नागरिक संहिता लागू कर रही है तब समर्पण में ऐसी यूनिफोर्मिटी अच्छी लगी। लेकिन अहम यह है कि समर्पण के मौजूदा संरक्षक हैं सचिन गुप्ता, जो कांग्रेस किसान प्रकोष्ठ के प्रदेश महासचिव हैं और अध्यक्ष हैं नरेश यादव जो फिलहाल नगर के भाजपा विधायक प्रदीप बत्रा की सहयोगी टीम का हिस्सा हैं। सचिन गुप्ता रुड़की में कांग्रेस के मेयर टिकट के दावेदार हैं और बहुत संभव है कि अगर मेयर पद पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित हो जाता है तो नरेश यादव ही टिकट के दावेदार बन जाएं। यह चेहरा केवल “समर्पण” का ही नहीं बल्कि “समन्वय” का भी है। ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं कि समर्पण के कांवड़ सेवा शिविर के उद्घाटन में प्रदीप बत्रा भी बतौर विशिष्ट अतिथि सपत्नीक शामिल हुए।

“समर्पण” के लिए “समन्वय” की कितनी आवश्यकता होती है यह पूरे तौर पर नरेश यादव की मौजूदा प्रगति में नजर नहीं आती बल्कि पूरे तौर पर नजर आती है पार्षद चंद्र प्रकाश बाटा की अवनति में जो “समर्पण” के संस्थापक प्रमुख थे; जो कांवड़ सेवा से लेकर रक्तदान विचार, जो समर्पण संस्था की बुनियाद में हैं, तक के प्रणेता थे, आज हाशिए पर हैं। जब “समर्पण” संस्था अपने वैभव के स्वर्णकाल में है तब चंद्र प्रकाश बाटा बदहाल हैं। कल सड़क पर दिखाई दिए तो उनसे केवल “राम राम” ही नहीं हुई, उन्हें देखकर मन में एक विचार भी उत्पन्न हुआ।

बाटा नगर में हिंदुत्व का सबसे मुखर चेहरा माने जाते हैं। वे कांवड़ सेवा समेत हर प्रकार की हिंदूवादी गतिविधि के “संरक्षक” के, “पुरोधा” के रूप में सामने आते रहे हैं। नतीजा यह हुआ कि फेल हो गए। जिस समाज के लिए वे लड़े उसी समाज ने उन्हें नकार दिया। हिंदू समाज ने उन्हें अपना “ठेकेदार” मानने से इंकार कर दिया। इसके विपरीत नरेश यादव “कांवड़ सेवक” के रूप में सामने आए और सर्व स्वीकार्य बन गए। वे “समर्पण” का स्थाई चेहरा बन गए। फिर सचिन गुप्ता इससे जुड़े तो इसमें “समन्वय” भी तड़का लग गया। इस समन्वय के जो वास्तविक परिणाम सामने आए वे कल्पनातीत हैं, “बेयोंड द कंप्रीहेंशन” हैं। जरा याद कीजिए 2021 के उस दौर को जब नीलम सिनेमा परिसर में प्रदीप बत्रा द्वारा शुरू किए गए निर्माण पर तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट ने सील लगा दी थी, जो कि चुनाव के बाद तक लगी रही थी। तब बड़ी मुश्किल से 2023 में जाकर कार्य पूरा हो सका था। और आज की सिविल लाइन की हकीकत देखिए। डेढ़ साल में ही सिविल लाइन कंक्रीट जंगल में परिवर्तित हो गया है। दर्जनों, बल्कि सैकड़ों छोटे बड़े निर्माण कार्य पिछले डेढ़ साल में ही इसी सिविल लाइन में या तो पूरे हो चुके हैं या जारी हैं। ध्यान रहे कि सिविल लाइन वह क्षेत्र है जहां नजूल का मामला आज भी अनिर्णीत है। आज भी वहां नक्शे पास नहीं होते। कारण वही है। प्रदीप बत्रा खुद को सिविल लाइन का “संरक्षक” मानकर कार्य कर रहे थे। परिणाम स्वरूप फेल हो गए। अपना ही निर्माण कार्य पूरा करने में फेल हो गए। इसके विपरीत सचिन गुप्ता “सिविल लाइन” सेवक के रूप में सामने आए और वहां कोई निर्माण कार्य रुक ही नहीं रहा है।

दरअसल, यह “समर्पण” का ही नहीं “समन्वय” का भी प्रतीक है। यह बेवजह नहीं है कि आज नगर विधायक प्रदीप बत्रा अंडर टोन में बात करते हैं। सिविल लाइन में अपने जादूगर रोड पर ही दस प्रकार के विरोध का सामना करते हैं और फिर नहर के पार जाकर समर्थन मांगते हैं। उन कांवड़ शिविरों में जाकर सेवा करते हैं जिनके विरोध में वे कल राजनेता बने थे। उन कलमकारों से अपने लिए अच्छा लिखवाते हैं जिन्हे वे कल मुंह भर भर कर कोसते थे।

हकीकत में प्रदीप बत्रा ने “समर्पण” की शक्ति को 2022 में तब आकर नहीं जाना जब नीलम परिसर में उनके अर्धनिर्मित भवन की सील खुली। उन्होंने “समर्पण” की शक्ति को तब ही जान लिया था जब 2022 के चुनाव में वे निश्चित हार से उबर कर बाहर आए थे; जब वे तीसरी बार विधायक निर्वाचित होने का अविश्वसनीय काम करने में सफल रहे थे। यह करिश्मा “समन्वय” का था और “समन्वय” का प्रतीक नरेश यादव नहीं बल्कि सचिन गुप्ता हैं। जाहिर है कि यूनिफोर्मिटी की जो संस्कृति “समर्पण” की अगुवाई में नरेश यादव ने विकसित की, असल में उस “समन्वय” का श्रेय सचिन गुप्ता को ही तो जाता है। कोई बड़ी बात नहीं कि वे ही नगर में प्रदीप बत्रा के वास्तविक “राजनीतिक वारिस” साबित हों। आखिर कांवड़ शिविर उद्घाटन के अवसर पर “समर्पण” ने अतिथियों को “एक पेड़ मां के नाम” का तोहफा भी तो दिया जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आह्वान है।