जरा चीजों को इस नजरिए से भी देखें

एम हसीन

हरिद्वार। रवीश कुमार अकेले पत्रकार नहीं हैं जिन्हें यह गिला है कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंटरव्यू नहीं देते। मुझसे कोई पूछे तो मुझे भी गिला है कि मुझे भी हरिद्वार विधायक मदन कौशिक इंटरव्यू नहीं देते; मंगलौर विधायक क़ाज़ी निज़ामुद्दीन इंटरव्यू नहीं देते। रुड़की विधायक प्रदीप बत्रा तो खैर देते ही नहीं। बत्रा से तो मुझे कोई गिला नहीं है क्योंकि मैं एक ऐसा राजनीतिक विश्लेषक हूं जिसके विश्लेषण राजनीतिक होते हैं लेकिन जिनकी बुनियाद में विज्ञान, मनो विज्ञान, अर्थ, अमीरी गरीबी, भूख, ऐश, प्रकाश, अंधकार, समाज, धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, जाति, वर्ग, वर्ण, इतिहास, वर्तमान, भविष्य, खेल, फिल्म, साहित्य आदि तमाम पक्ष होते हैं और बत्रा न तो राजनीतिक हैं और न ही वे राजनीति का कोई महत्वपूर्ण काल खंड हैं। वे तो जब तक हैं, हैं। जब नहीं होंगे तो वैसे ही नहीं होंगे जैसे उनसे पहले हुए बहुत सारे अब नहीं हैं, जीवित हैं लेकिन कहीं नहीं हैं। ऐसे में अगर बत्रा को लगता है कि उनका उद्योग “प्रकाश स्वीट्स” उन्हें इतिहास में उसी तरह जिंदा रखेगा जैसे दिल्ली का लाल किला ढाई सौ साल पहले जन्मे मुगल सम्राट शाहजहां को रखता है तो वे ऐसा सोचते रहें। शहर के हर चौराहे पर खड़ा करते रहें “प्रकाश स्वीट्स।” सच यह है कि जब देश में पानी हैंड पंप से निकाला जाता था तब प्रदीप बत्रा के इसी रुड़की शहर में हैंड पंप बनाने वाली रुड़की की ही एक कंपनी “बटाला एंड कंपनी” का राज चलता था। यह सिर्फ 40 साल पुरानी बात है। आज कोई नहीं जानता कि कभी ऐसी कोई कंपनी भी रुड़की में थी। बी एस एम कॉलेज के सामने जहां महज 50 साल पहले कंपनी की फैक्ट्री थी वहां अब मात्र बड़ी छोटी दुकानें हैं। यानि अजगर को चींटियां खा गई। आर्थिक या व्यवसायिक गतिविधियों का यही सच है। इन गतिविधियों को इतिहास याद नहीं रखता। इस मामले में “कुबेर” और “धनवंतरी” के बाद खुद को अपडेट करना इतिहास ने बंद कर दिया था।

लेकिन मदन कौशिक और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन पर यह बात लागू नहीं होती। उन दोनों को मैं हरिद्वार जिले में ही नहीं बल्कि प्रदेश की राजनीतिक के हिसाब से भी इतिहास पुरुष मानता हूं, एक पूरा काल खंड मानता हूं जो सौ साल बाद भी लोकतंत्र के इतिहास में याद रखा जाएगा; और मानता हूं कि इन दोनों ने महज विधायक होने के बावजूद कई अवसरों पर राष्ट्रीय राजनीति की दिशा को भी प्रभावित किया था। समाज की जो भी प्रगति या अवनति हुई उसमें तो इनकी भूमिका रही ही। सच पूछें तो इन दोनों को मैं जानता भले ही कम हूं लेकिन जितना मैं समझता हूं उतना शायद ये दोनों भी खुद को नहीं समझते होंगे। इस बात का इशारा यह सच भी देता है कि ये दोनों ही इस मामले में समान हैं कि ये मुझे इंटरव्यू नहीं देते। बाकियों की बात करना तो इसलिए बेकार है क्योंकि बाकी तो इन्हीं की पहल के हिसाब से, चाहे वे इस सच को न मानें, मुझे “पूछते” या “नहीं पूछते” हैं। इसलिए उनसे मुझे कोई गिला नहीं है।

देखा जाए तो मदन कौशिक और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन में कुछ कॉमन है तो यही कि दोनों राजनीति करते हैं और अब दोनों उत्तराखंड विधानसभा के सदस्य हैं। बाकी तो सब असमन्ताएं ही हैं। मसलन, मदन कौशिक पांच बार चुनाव लड़कर पांचवीं बार विधायक हैं और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन 6 बार चुनाव लड़कर चौथी बार विधायक हैं। मदन कौशिक तीन बार भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं लेकिन अभी क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को यह अवसर अभी एक बार भी नहीं मिला है। मदन कौशिक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं जबकि क़ाज़ी निज़ामुद्दीन कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं। फिर एक भाजपा की राजनीति करते हैं जबकि दूसरे कांग्रेस की; और इन दिनों तो भाजपा कांग्रेस के बीच सीधी प्रतिस्पर्धा है। ये दोनों चूंकि एक ही जिले की राजनीति करते हैं इनमें भी यह प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है। ऐसे में दोनों में कोई समानता रेखांकित कर पाना आसान नहीं है। लेकिन एक समानता तो मैं ने दोनों में रेखांकित की ही है कि दोनों ही मुझे इंटरव्यू नहीं देते। जाहिर है कि दोनों ही केवल दोस्त ही नहीं बल्कि मुखालिफ भी परखकर बनाते हैं। हर किसी को अगर ये सम्मान नहीं देते तो हर किसी का अपमान भी नहीं करते। दोनों की कार्यशैली यह है कि “मुहब्बत के लिए कुछ खास दिल मखसूस होते हैं। ये वो नगमा है जो हर साज पर गया नहीं जाता।”

मेरा अनुभव यह है कि पत्रकार, अगर वह वास्तव में पत्रकार है, तो एक उम्र के बाद वह जीवन भर किए अपने अनुभवों पर किताब लिखता है। लेकिन मेरी मजबूरी है कि मैं ऐसा नहीं कर पाता। मेरी “तवा चूल्हे पर चढ़ा कर आटा कमाने जाने” की खराब आदत है। इसलिए मुझे हर हाल में घर से निकलना ही पड़ता है। इसलिए किताब पर मैं कंसेंट्रेट नहीं कर पाता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं पत्रकार होने के नाते मदन कौशिक या क़ाज़ी निज़ामुद्दीन से वे सवाल नहीं पूछना चाहता जिनका संबंध न केवल हरिद्वार मंगलौर, जिला या प्रदेश की राजनीति से है, बल्कि उन हालात से भी है जिन्हें मैं जानता समझता हूं। सच तो यह है कि जिन्हें मैं ही जानता समझता हूं। वे मुझे इंटरव्यू देना मंजूर करें तो शायद वे भी अपने विषय में कुछ नया जानें, कुछ नया समझें। आखिर कन्वर्सेशन से ही तो चीज़ें आकार लेती हैं, अस्तित्व में आती हैं। लेकिन यह अलग मसला है। फिलहाल मेरा दुर्भाग्य यह है कि अभी तक जब भी मैने इनके निकट जाने की कोशिश की मुझे न उम्मीदी ही मिली। या तो इन्होंने खुद ही मुझे मुंह नहीं लगाया या इनके निकट के लोग बीच में दीवार बन गए या मेरे ही किसी उतावलेपन ने कुछ गलत कर दिया। खैर…….। ख्वाहिशें सभी तो पूरी नहीं होती। लेकिन ख्वाहिशें मर भी नहीं जाती।