हालात के अभी और रंगीन होने के आसार

एम हसीन/देहरादून। राज्य की सभी 5 सीटों पर हार के बाद जब केंद्र ने फैक्ट फाइंडिंग कमेटी को उत्तराखंड भेजा तो राज्य कांग्रेस ने बड़ी नफासत से उसके समक्ष विधानसभा उप चुनाव में मिली सफलता की उपलब्धि परोस दी; हालांकि ऐसा औपचारिक रूप से नहीं किया गया, बस इतना किया गया कि कमेटी के राज्य कांग्रेस मुख्यालय पहुंचने के ऐन समय पर नव निर्वाचित विधायकों का स्वागत कर दिया गया।

बहरहाल, जब राज्य की दो विधानसभा सीटों पर हुए उप चुनाव में जीत हासिल करने के बाद विपक्षी दल कांग्रेस से अपेक्षा यह की जाती है कि वह 2027 के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार बनाने का स्पष्ट लक्ष्य लेकर काम करती हुई दिखाई दे। लेकिन पार्टी के भीतर जारी तमाम प्रकार की विरोधाभासी गतिविधियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पार्टी सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी के भीतर चल रहे संघर्ष में अपने लिए भूमिका तलाश कर रही है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि कौन कांग्रेसी भाजपा के कौन से क्षत्रप के साथ चल रहा है। फिर मसला कांग्रेस के भीतर नेताओं के अपने अस्तित्व का भी है। ऐसे में पार्टी के भीतर आपसी संघर्ष बढ़ गया है, जो अलग अलग चीजों के माध्यम से मंजर ए आम पर आ रहा है।

उदाहरण के तौर पर दिल्ली में निर्मित हो रहे केदारनाथ मंदिर को लेकर शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद की मुहिम को पार्टी की अधिकृत प्रवक्ता गरिमा दसौनी खुलकर डिफेंड कर रही हैं; जबकि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा हरिद्वार जाकर संतों से आशीर्वाद हासिल करते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह स्थिति तब है जब हरिद्वार के कतिपय संत सीधे-सीधे शंकराचार्य के खिलाफ मोर्चा भी खोले हुए हैं। लेकिन बात केवल इतने पर ही सीमित नहीं है। इसे भी खासी गंभीरता के साथ देखा जाना चाहिए कि हाल ही में लोकसभा चुनाव में हरिद्वार सीट पर कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भाजपा प्रत्याशी त्रिवेंद्र सिंह रावत के आमने सामने थे। प्रत्याशी भले ही हरीश रावत के पुत्र वीरेंद्र रावत थे लेकिन चुनाव हरीश रावत ही लड़ रहे थे। यही हरीश रावत गत दिवस नवनिर्वाचित हरिद्वार सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत की आम पार्टी में उन्हें आम का खिलाते हुए दिखाई दिए। हालांकि राजनीतिज्ञों का यूं एक दूसरे के साथ सामान्य व्यवहार करना कोई ना तो आश्चर्य की बात है और ना ही आपत्तिजनक है। लेकिन यह भी स्पष्ट दिखना चाहिए कि यूं सामान्य संबंध सामान्य स्थितियों में ही निभाई जा रहे हैं। उनका किसी दूसरे दल के भीतरी संघर्ष से कुछ लेना देना नहीं है।

वैसे इस प्रकार संघर्ष केवल भाजपा के भीतर चल रहा हो, ऐसा नहीं है। अस्तित्व का ऐसा संघर्ष कांग्रेस के भीतर भी पूरी शिद्दत से चल रहा है। कारण यह है कि पार्टी के पास विधानसभा उप चुनाव में जीत की उपलब्धि ही नहीं है बल्कि लोकसभा चुनाव में एकतरफा हार का इतिहास भी है। केंद्रीय नेतृत्व ने हार के कारणों की पड़ताल के लिए फैक्ट फाइंडिंग कमेटी देहरादून भेजी हुई है जो फैक्ट्स की फाइंडिंग कर रही है। जाहिर है कि जब कमेटी की रिपोर्ट हाई कमान के पास जाएगी तो राज्य में हार की जिम्मेदारी भी किसी के नाम दर्ज की जाएगी। ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं कि पार्टी के नेता जो पदस्थ हैं वे अपने पद बचाने की जुगत में हैं और जो खाली बैठे हैं वे पद पाने की जुगत में हैं। ऐसे में अहमियत इस बात की नहीं कि भाजपा के भीतर जारी संघर्ष का परिणाम क्या होगा! अहमियत इस बात की है कि खुद कांग्रेस के भीतर संघर्ष का अभी और मुखर होना लाजमी होगा।