एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
एम हसीन
सैंस ऑफ ह्यूमर से कोरे लोग, फिर वे भले ही सेंट गैब्रियल के पास आउट हों, हेड लाइन की इन दो पंक्तियों को नहीं जोड़ पाएंगे। यह मेरा दावा है कि इन दोनों चीजों को लिंक करके वही व्यक्ति मतलब समझ सकेगा जो टाट की पट्टी पर बैठकर, किताब मांग कर पढ़ा हो। कॉन्वेंट पैट्रन में दुनियादारी नहीं बल्कि अर्थशास्त्र और भाषा पढ़ाई जाती है, पैसा कमाना सिखाया जाता है। यह अलग बात है कि कतिपय लोग वह भी पूरे तौर पर नहीं सीख पाते। कॉन्वेंट पद्धति मूल रूप से प्रोफेशनल बनाती है जबकि कुछ लोग वहां की शिक्षा का मूल-मंत्र भूल कर कमर्शियल बन जाते हैं; जैसे भी हो अपना घर भरने पर लग जाते हैं। मेरी जानकारी के सारे गैब्रेलिट तो ऐसे ही हैं। बहरहाल, उपरोक्त पंक्ति विख्यात उर्दू शायर जिगर मुरादाबादी के शेर, “ये इश्क नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे। एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।” से ली गई है। इसमें शायर ने इश्क की मुश्किलात को ब्यान किया है लेकिन पत्रकारिता पर यह पूरे तौर पर लागू होती है। संक्षेप में कहें तो, पत्रकारिता उसका काम है जो बिना रोटी खाए जीने का हुनर जानता हो। रोटी बुनियादी चीज है और प्राकृतिक रूप से पेट शरीर के बीच में लगाया गया है; अर्थात इसे काटकर नहीं फेंका जा सकता। शरीर को कायम रखना है तो रोटी खानी ही पड़ेगी। तभी पत्रकारिता भी हो सकेगी और जो पत्रकारिता करना चाहता हो उसे रोटी मिलती नहीं। दुनिया वाले कहते हैं कि रोटी तो भगवान देता है। इस मामले में मेरा विचार कुछ और है जो मैं बाद में कभी ब्यान करूंगा। फिलहाल मेरा कहना यह है कि पत्रकार को रोटी नहीं मिलती; खासतौर पर अगर वो अखबार या चैनल का मालिक हो। रिपोर्टर को तो फिर भी मिल सकती होगी, क्योंकि उसे तो कम ही सही, देर से ही सही, अखबार का मालिक तनख्वाह दे ही देगा; पत्रकार अगर अखबार का मालिक हो तो उसे रोटी खासतौर पर नहीं मिलती। व्यवस्था ऐसा ही कार्यक्रम तय करके रखती है।
लेकिन पत्रकार की असली समस्या यह नहीं है। बिना रोटी खाए जीने का उसका इरादा तयशुदा होता है, वह पत्रकार ही इसी सोच के तहत बनता है। पत्रकार की असली समस्या यह होती है कि उसकी जानकारी की, उसके बैटर जजमेंट की कोई कीमत नहीं होती, उसे किसी गिनती में नहीं रखा जाता। अपने शहर में घटने वाली किसी मामूली घटना की जानकारी भी अखबार पढ़कर हासिल करने वाला, फिर उस पर चर्चा करने वाला कोई आम व्यक्ति भी एक मिनट में पत्रकार की सारी जानकारी को गलत तो बता ही देता है, उसे झूठी बताकर पत्रकार की नीयत को भी कठघरे में खड़ा कर देता है। कारण, आम आदमी पर अपनी बात को या अपने आरोप को साबित करने की जिम्मेदारी नहीं होती, जबकि पत्रकार अगर बिना किसी सबूत कोई बात कहता है तो उसे उल्टा टांग दिया जाता है।
अपनी बात को साबित करने की कोई शर्त व्यवस्था में बैठे किसी अधिकारी पर भी लागू नहीं होती। अब उन एग्जीक्यूटिव इंजीनियर को लीजिए जो करीब सौ करोड़ रुपये की राशि से निर्माण करा रहे हैं। उनके कार्यक्षेत्र में आने वाले विधायक निर्माण कार्यों के रोज या शिलान्यास कर रहे हैं या उद्घाटन कर रहे हैं, जो कि निर्माण कार्यों के लगातार जारी रहने का अपने-आप में प्रमाण हैं। इसके बावजूद एग्जीक्यूटिव इंजीनियर कह रहे हैं कि उनके डिवीजन में कोई टेंडर नहीं हो रहे हैं। अब मसला यह है कि पत्रकार का अपना बैटर जजमेंट जो कह रहा है, एग्जीक्यूटिव इंजीनियर उसके बिल्कुल उलट कह रहे हैं। ऐसे में स्थिति यह उभरती है कि अगर एग्जीक्यूटिव इंजीनियर से सवाल कोई रिपोर्टर कर रहा होता तो वह एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के इसी जवाब के साथ स्टोरी छपने के लिए प्रेस में देता है और पत्रकारिता का पक्ष पूरा हो जाता है, क्योंकि कोई पाठक यह नहीं देखता कि जो काम हुआ है उसका कहीं टेंडर प्रकाशित हुआ है या नहीं। लेकिन सवाल अखबार का मालिक कर रहा है जो एग्जीक्यूटिव इंजीनियर से अपने अखबार में प्रकाशित करने के लिए टेंडर भी चाहता है, यानी सवाल उसकी रोटी से भी जुड़ा है, इसलिए उसे अपने बैटर जजमेंट के खिलाफ जाकर एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के जवाब पर यकीन करना पड़ता है। यह उसकी मजबूरी बन जाती है। ऐसे में पत्रकार यह धर्म यह है कि वह रोटी खाने की इच्छा छोड़ दे, अखबार को चूल्हे में डाल दे और अपने बैटर जजमेंट को लेकर गली-गली निकल जाए, बात कहने के माध्यम का पोषण करने की बजाय बात का पोषण पर जोर दे। तब होगा यह कि उसके अपने अखबार में उसकी बात भले ही न छप सके लेकिन दुनिया जहान के सारे अखबारों में जरूर छपेगी। फिर शायद हालात में कुछ बदलाव नजर आए।