पूर्व मेयर यशपाल राणा बन गए हैं नगर में जन अपेक्षा के नए केंद्र बिंदु

एम हसीन

रुड़की। क्या रुड़की की राजनीति बदल रही है? क्या जनता पर राजनीतिक दलों का प्रभाव दरक रहा है? क्या 2027 के विधानसभा चुनाव में भी निर्दलीय की एंट्री होने जा रही है? हाल के निकाय चुनाव परिणाम के बाद ये सवाल राजनीतिक क्षेत्रों में दस्तक देने लगे हैं। यहां यह ध्यान रखने वाली बात है कि रुड़की में किसी निर्दलीय के विधायक बनने का कोई इतिहास नहीं है। एक बार, 1985 में प्रताप नारायण बरतर, निर्दलीय लड़े जरूर थे लेकिन वे जीत नहीं पाए थे, बल्कि मुख्य मुकाबले में भी नहीं आ पाए थे। लेकिन यह भी सच है कि 2025 से पहले राजनीतिक दलों के प्रति जनता की इतनी अरुचि भी सामने नहीं आई थी। इसलिए उपरोक्त सवाल महत्वपूर्ण है।

निकाय चुनाव के परिणाम के तौर पर भाजपा ने मेयर सीट इस बार जीत ली है। बोर्ड में बड़ी संख्या भाजपा के ही पार्षदों की है। लेकिन इस चुनाव में जिस प्रकार का समर्थन निर्दलीय प्रत्याशी श्रेष्ठा राणा को मिला और जिस प्रकार का निखार श्रेष्ठा राणा के चुनाव प्रबंधक उनके पति पूर्व मेयर यशपाल राणा की शख्सियत में आया हुआ दिखाई दिया वह उल्लेखनीय है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसने मेयर चुनाव का चाहे जो परिणाम लिखा हो, लेकिन निगम की 5 साल की गतिविधियों का दस्तावेज पहले लिख दिया है, यह पहले लिख दिया है कि नव-निर्वाचित मेयर बोर्ड को किसी खास मानसिकता या किसी खास एजेंडा के तहत शायद ही चला पाएं। संक्षेप में, निगम की गतिविधियों में पराजित पक्ष का भी प्रभावी हस्तक्षेप होगा। यानि नगर की राजनीति में व्यापक बदलाव आएगा। साथ ही इस नतीजे ने अगले विधान सभा चुनाव का परिणाम भी पहले ही लिख दिया है।

जैसा कि सब जानते हैं कि मेयर चुनाव भाजपा की अनीता देवी अग्रवाल ने 35 हजार वोटों के समर्थन के साथ जीता और निर्दलीय श्रेष्ठा राणा ने 32 हजार वोटों के समर्थन के साथ सीधे मुकाबले में हारा। अगर पूरे निर्वाचन क्षेत्र में मतदान की गति और उसका प्रतिशत एक समान होता तो भी श्रेष्ठा राणा का यह प्रदर्शन बेहद शानदार माना जाता। लेकिन मतदान क्षेत्रों के मतदान की असमानता ने मामले में चार चांद लगा दिए हैं। भाजपा सरकार ने उस मुस्लिम बेल्ट में मतदान नहीं होने दिया जहां से श्रेष्ठा राणा के पक्ष में बड़ा समर्थन आ रहा था। यही वह बेल्ट थी जहां के बलबूते पर श्रेष्ठा राणा के चुनाव का दारोमदार था। और यहीं सरकार ने मतदान नहीं होने दिया। इसके बावजूद श्रेष्ठा राणा को मिले बंपर समर्थन ने जो संदेश दिया है वही वास्तव में दलीय राजनीति के इस गढ़ में राजनीतिक दलों के लिए मुख्य रूप से खतरे की घंटी बन गई है।

सवाल यह है कि जब श्रेष्ठा राणा ने भाजपा के गढ़ों में इतना प्रबल जन-समर्थन हासिल किया तो उनके खुद के गढ़ों में भी अगर मतदान समान रूप से होता तो क्या होता? अन्य शब्दों में इसे यूं कहा जा सकता है कि जब हिंदू बहुल क्षेत्रों में श्रेष्ठा राणा ने भाजपा के साथ नेक टु नेक संघर्ष किया; उन्होंने न केवल भाजपा को उसके क्षेत्रों में उसके जन-समर्थन से कोरा किया बल्कि यह जन-समर्थन कांग्रेस की ओर भी नहीं जाने दिया तो जब अपने गढ़ों में वे जाती तो क्या कहर ढाती? माना जा रहा है कि चुनाव अगर फ्री एंड फेयर होता तो जितना समर्थन भाजपा-कांग्रेस को सामूहिक रूप से मिलता कमोबेश उतना ही श्रेष्ठा राणा को निर्दलीय रूप में अकेले मिलता। यह अनुमान इसलिए ज्यादा शिद्दत से लगाया जा रहा है क्योंकि खासतौर पर भाजपा समर्थक लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब उन्होंने यह मेयर बनाने के लिए वोट नहीं दिया तो यह मेयर कैसे बन गया? ऐसे में सवाल यह कि अब नगर की राजनीति का क्या रूप होगा और अगले विधानसभा चुनाव में निर्दलीय का क्या रुख रहेगा? और अगले 5 साल निगम बोर्ड की स्थिति क्या रहेगी? जहां तक यशपाल राणा का सवाल है, वे तो कह चुके हैं कि वे 2027 के लिए तैयार हैं।