निकाय चुनाव का परिणाम तो कहता है कि कायम रहा निर्दलीय का जलवा
एम हसीन
रुड़की। भाजपा की अनीता देवी अग्रवाल के मेयर निर्वाचित हो जाने के बाद राजनीतिक क्षेत्रों में यह बताया जा रहा है कि नगर की जनता निकाय चुनाव के मामले में भी अब निर्दलीय व्यवस्था से उकता गई है और अब स्थानीय राजनीति को भी वह दल के आधार पर ही होते देखना चाहती है। क्या वाकई ऐसा है?
मुद्दे पर आगे चर्चा करने से पहले इस बात पर गौर किया जाए कि जनता द्वारा दिए गए निर्णय के अनुसार अनीता देवी अग्रवाल ने 35 हजार से कुछ अधिक वोट लेकर महानगर का प्रथम नागरिक होने का गौरव प्राप्त किया। उनके सामने दल का दूसरा प्रत्याशी कांग्रेस की पूजा गुप्ता थीं जिन्हें 15 हजार से कुछ अधिक वोट मिले। अहमियत इस बात की है कि यह मुकाबला यूं ही भाजपा और कांग्रेस के बीच नहीं हुआ, बल्कि इन दोनों के बीच एक निर्दलीय प्रत्याशी श्रेष्ठा राणा थीं जिन्होंने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ते हुए 32 हजार से कुछ अधिक वोट हासिल किए। उपरोक्त परिणाम से क्या साबित होता है? यह इसलिए कुछ अधिक महत्वपूर्ण है कि निर्दलीय श्रेष्ठा राणा के पति पूर्व मेयर यशपाल राणा और पूजा गुप्ता के पति कांग्रेस पदाधिकारी सचिन गुप्ता समेत अन्य सभी प्रत्याशियों ने यह आरोप भी लगाया है कि भाजपा ने मुस्लिम बेल्ट में मतदाताओं को मतदान नहीं करने दिया। इस मामले में उनके पास तमाम तथ्य और प्रमाण वीडियो आदि के रूप में मौजूद हैं। इस आरोप के आलोक में यह सवाल अहम है कि क्या रुड़की की जनता निर्दलीय से उकता गई है?
रुड़की का इतिहास स्थानीय राजनीति को लेकर राजनीतिक दलों से हमेशा अलग रहता आया है। कभी राम मंदिर आंदोलन की छाया में हुए 1995 के निकाय चुनाव में पहली बार यहां भाजपा के राजेश गर्ग नगर प्रमुख चुने गए थे। दरअसल, इसी चुनाव में पहली बार दलीय व्यवस्था लागू हुई थी। पूर्व में स्थानीय निकाय चुनाव उसी प्रकार बिना दल के टिकट के होते थे जैसे ग्राम पंचायतों के होते हैं। 1995 में भाजपा के टिकट पर जीते राजेश गर्ग हाल तक के इतिहास के यहां आखिरी दलीय नगर प्रमुख थे। उसके बाद 2003, 2008, 2013 व 2019 में निकाय चुनाव हुए लेकिन नगर में हर बार निर्दलीय जीतकर आया। 1995 के बाद इस बार अनीता देवी अग्रवाल दल के टिकट पर मेयर बनी हैं। रुड़की मेयर चुनाव की मतगणना कुल 8 राउंड में हुई और उसका जो ट्रेंड सामने आया उसके मुताबिक एक भी राउंड में अनीता देवी अग्रवाल को कोई दूसरा प्रत्याशी पछाड़ नहीं पाया। उन्होंने पहले राउंड में जो बढ़त हासिल की थी, वह आखरी राउंड तक जारी रही। लेकिन जितना यह सच है उतना ही सच यह भी है कि हर राउंड में दूसरा नंबर श्रेष्ठा राणा का ही रहा। प्रत्याशी यहां कांग्रेस के अलावा बसपा और आम आदमी पार्टी के भी थे, लेकिन कोई भी प्रत्याशी किसी भी राउंड में अपने लिए दूसरा स्थान सुनिश्चित नहीं कर सका। दूसरी ओर तीसरे राउंड तक जाकर अनीता देवी अग्रवाल की जो बढ़त 7 हजार वोटों से ज्यादा हो गई थी, वह आगे चलकर कम हुई। मुस्लिम वार्डों से बेहद कम वोट आने के बावजूद श्रेष्ठा राणा ने अपनी स्थिति को और अधिक मजबूत किया और अंत में जाकर यह अंतर महज तीन हजार के करीब रह गया। इससे यह इशारा मिलता है कि जितना मजबूती से भाजपा प्रत्याशी लड़ी उतनी ही मजबूती से निर्दलीय श्रेष्ठा राणा लड़ी। बाकी दलों के प्रत्याशी भले ही आखिरी राउंड तक वोट लेते रहे लेकिन उनका व्यवक्तिगत या सामूहिक आंकड़ा इतना नहीं बन पाया कि किसी भी स्तर पर मुकाबला त्रिकोणीय बना हो। कहने का मतलब यह है कि भले ही भाजपा ने अपने प्रत्याशी को जितवा लिया हो लेकिन निर्दलीय प्रत्याशी की हार इतनी बड़ी नहीं है कि भविष्य के लिए निर्दलीय के तत्व को खत्म ही मान लिया जाए। सच यह है कि दलीय तत्व जीता है लेकिन निर्दलीय तत्व हारा नहीं है।