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एम हसीन

क्या करे आदमी? कल एक स्टोरी लिखी। एक सज्जन, जो पुराने साथी हैं, को स्टोरी बहुत पसंद आई! पता नहीं क्यों आई? क्या उनका इस स्टोरी से हित पूरा हो रहा था। मैं ने अपनी सोच से तो उनके किसी हित को ध्यान में रखकर लिखा नहीं था। फिर भी उन्हें पसंद आई। उनका फोन आया और उन्होंने बधाई देने के साथ साथ मुझे इनाम देने की बात भी कही। बात क्या कही सच में इनाम दिया। लाख मना करने के बावजूद मेरे अकाउंट में दो हजार रुपए ट्रांसफर कर दिए। क्यों कर दिए? किसलिए कर दिए? समझ नहीं पाया। मेरे लिए सवाल यह है कि पैसा मेरे किस काम का? क्यों मैं किसी से पैसा मांगू और क्यों कोई मुझे पैसा दे? मैं तो पैसा चाहता नहीं। कतिपय लोग इसे झूठ समझ सकते हैं, खासतौर पर वे लोग जिनसे कभी मैं कुछ मांग लेता हूं। जाहिर है कि उन्हें तो लगेगा ही मैं मांगता भी हूं और यह भी कह रहा हूं कि मुझे पैसा नहीं चाहता। लेकिन यह सच है कि मुझे पैसा नहीं चाहता। मेरी जिंदगी में पैसे का कोई रोल नहीं है। मैं पैसा किसी से तभी मांगता हूं जब कोई मुझसे मांगता है। अगर कोई मुझसे न मांगे तो फिर मैं नहीं भी नहीं मांगता। मांगना तो दूर मैं लेता भी नहीं; देने वाले से मेरी इसी बात पर बहस हो जाती है कि वह मुझे क्यों देना चाहता है? जैसा कि उन मित्र के साथ हो रही है कि उन्होंने मेरे अकाउंट में दो हजार रुपए ट्रांसफर किए।

इस मुद्दे पर बहस हो जाने के दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि मेरी जरूरत दो हजार रुपए से पूरी नहीं होती। दो हजार तो क्या मेरी जरूरत इस दुनिया की सारी दौलत से भी पूरी नहीं होती। मेरा तो यह विचार है कि, “खुदाई गर नहीं मिलती तो फिर कुछ भी न चाहूं मैं। मेरे अपने लिए या रब कहां कुछ भी जरूरी है?” जब मेरी कुछ जरूरत ही नहीं तो मैं उसे कैसे रेखांकित करूं, कैसे तय करूं कि मुझे कितना चाहता है? इसी कारण मैं तब तक किसी से कुछ नहीं मांगता जब तक कोई मुझसे कुछ नहीं मांगता। अगर कोई मुझसे कोई अपनी जरूरत की चीज या रकम बताकर कोई सवाल कर देता है तो मैं आगे किसी और से उतनी ही रकम मांग लेता हूं। यूं मेरा रोल पोस्ट ऑफिस जैसा हो जाता है। मैं एक से ले लेता हूं और दूसरे को दे देता हूं। मैं दूसरे की इस आजादी में दखल नहीं देता कि वह अपनी हजार दो हज़ार की जरूरत तय कर सके, उसे मुझसे या किसी और से कह सके। आखिर यह तो सच है कि दुनिया नाम की यह साइकिल मांगे जाने और दिए जाने से ही चल रही है।

जहां तक सवाल पैसे का है तो यह तो सच है कि यह कुछ खास जगह रहना पसंद करता है। यह भी सच है कि पैसे वाले के पास किसी को देने के लिए पैसे के अलावा कुछ नहीं होता और पैसा वह किसी को देना नहीं चाहता। कारण पैसा हासिल करने के लिए उसने जो मुसीबतें उठाई होती हैं, दो समझौते किए होते हैं, मान सम्मान से लेकर रिश्तों नातों तक के जो सौदे किए होते हैं वह उसे ही पता होता है। अगर अपवाद को छोड़ दिया जाए तो पैसा हासिल करने के लिए निर्धारित एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरे बगैर पैसा हासिल नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि पैसे वाले को दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार पैसे से होता है। उसे मालूम होता है कि उसके पास किसी को देने के लिए पैसे के अलावा कुछ नहीं है। फिर भी वह किसी को पैसा नहीं देना चाहता। खुदा का शुक्र है कि मेरे पास पैसा नहीं है।

समाज जानता है कि मेरी कोई आर्थिक हैसियत नहीं है। इसलिए मुझसे कोई लाखों की रकम नहीं मांगता। हजार दो हजार की जरूरत के वक्त ही मैं किसी को अपने काम का आदमी लगता हूं और मेरे लिए वह जश्न का मौका होता है, खुशी का मौका होता है, किसी ने मुझे किसी लायक समझा। वैसे मैं कर यह भी सकता हूं कि यूं मांगने वाले को इनकार कर दूं कि मेरे पास कुछ नहीं है। लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहता। मेरी सोच के मुताबिक अगर मेरी कोई जरूरत नहीं है तो मैं तो किसी की जरूरत हो सकता हूं। दूसरी बात, मेरी कोई जरूरत नहीं लेकिन किसी और की जरूरत तो कोई मेरी मार्फत पूरी कर ही सकता है। इस तरीके से मेरी भी दुनिया में प्रासंगिकता बनी रहती है। मैं मानता हूं कि मैं किसी को कुछ भी नहीं दे सकता लेकिन किसी के लिए किसी और से कुछ मांग तो सकता ही हूं। अगर मैं इतना भी न करूं तो फिर होने का क्या मतलब? फिर मैं दुनिया में रहूं क्यों? इस सोच के पीछे मरने के बाद का डर है, जैसा कि गालिब कहते हैं, “हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क ए दरिया। न कहीं जनाजा उठता न कहीं मजार होता।” डर लगता है कि मरने के बाद कहीं इसी बात से रुसवा न होना पड़े कि हम दुनिया में क्यों आए थे? क्या करने आए थे? क्या हमने किया?

वैसे तो आजकल एक स्लोगन खूब चल रहा है कि, “डर के आगे जीत है।” लेकिन मैं, शर्मिंदगी के अहसास के साथ कबूल करता हूं, कि मैं कभी डर से उबर नहीं पाया। बेशक मुझे सत्ता छिन जाने का डर नहीं है, धन दौलत, घर दफ्तर छिन जाने का डर नहीं है। इनमें से कुछ मेरे पास कुछ है ही नहीं। लेकिन डर है। डर है मरने के बाद का। उसके पीछे भी वजह है। वजह अंग्रेजों कि इस कहावत में छुपी है कि “पावर फ्लोज द बैरल ऑफ गन।” अर्थात, ताकत बंदूक की नली से निकलती है। यह सच दुनिया की सत्ता के ऊपर ही लागू नहीं होता बल्कि प्रकृति की सत्ता के ऊपर भी लागू होता है, जिसकी व्याख्या धर्म शास्त्र अपने तरीके से करते हैं और गालिब ने अपने, यूं भी कह सकते हैं कि मेरे, तरीके से बयान की है। धर्म शास्त्रों की व्याख्या तो यह है कि अगर जन्नत चाहते हो तो डर कर रहो। अगर डरोगे नहीं तो मरने के बाद प्रकृति, जिसे धर्म शास्त्र अपने अपने नामों से उद्घोषित करते हैं, माफ नहीं करेगी। गालिब के दृष्टिकोण में प्रकृति का नहीं बल्कि प्रकृति की और दुनिया की प्रवृत्ति का अहम रोल है। उनका दृष्टिकोण यह है कि दुनिया मरने के बाद भी माफ नहीं करेगी। अब पता नहीं कि धर्म शास्त्रों की बात में मेरा विश्वास है भी या नहीं। लेकिन गालिब की बात का मुझे पूरा पूरा विश्वास है। इसलिए मरने के बाद रुसवा न होने का डर मजबूर करता है कि मैं अपने लिए कुछ मांगू या न मांगू लेकिन अगर कोई मुझसे कुछ मांग रहा है, मेरे होने की अहमियत कायम कर रहा है, मुझे प्रासंगिक बना रहा है तो मैं उसके लिए तो किसी से कुछ मांग ही लूं। यूं देने वाले की भी अहमियत बनी रहती है। उसका यह भ्रम बना रहता है कि वह मुझसे बड़ा है, मुझ पर कादिर है, मुझ पर, मेरे वजूद पर, मेरी सोच पर, मेरी ताकत पर उसका कब्जा है। लेकिन दुनिया बेमानी तब लगती है जब अपनी तरफ से देने वाला, अपनी खुशी से देने वाला, जबरदस्ती देने वाला भी महज दो हजार रुपए ट्रांसफर करता है। इससे लगाया है कि दुनिया की लेने और देने की हकीकत बस दो हजार रुपए ही हैं? क्या मान, सम्मान, इज्जत, प्यार सब बेकार के शब्द हैं? इनका कोई मतलब नहीं है? फिर मुझे यह शेर प्रासंगिक लगता है कि, “नाखुदा हमको डुबोता तो कोई बात न थी। हम तो डूबे हैं खुदाओं पै भरोसा करके।” और गालिब के शब्दों में बयान करूं तो दिल यही कहता है कि “रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो। हम सफर कोई न हो, हमजबां कोई न हो।”