अब जनवरी फरवरी में ही की जा सकती है प्रक्रिया शुरू होने की उम्मीद
एम हसीन
देहरादून। राज्य में निकाय चुनाव का मामला एक बार फिर टल गया है। राज्य सरकार ने निकायों में प्रशासकों के कार्यकाल को तीन महीने के लिए बढ़ा दिया है। कार्यकाल 1 दिसंबर को पूरा हो रहा था जो अब फरवरी तक बढ़ गया है। इससे यह उम्मीद नहीं बंधती की दिसंबर जनवरी में चुनाव हो ही जाएंगे। यह कार्यकाल एक बार फिर तीन महीने के लिए बढ़ाया जा सकता है। सब कुछ हालात पर निर्भर करता है। अर्थात बात एक बार फिर अप्रैल मई तक जा सकती है। लेकिन चुनाव तो बहरहाल होना ही है। आखिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब इसे पहले नहीं रोका जा सका था तो अब कैसे रोका जा सकता है।
पाठक गण की जानकारी के लिए, एक दौर ऐसा भी रहा है जब लगातार 17 सालों तक निकाय चुनाव नहीं हुआ था।1967 में आखरी बार निकाय चुनाव हुआ था। 1972 में चुनाव निर्धारित था लेकिन नहीं कराया गया था। बात आगे बढ़ते बढ़ते 1989 तक पहुंची थी। लेकिन इससे पहले तत्कालीन केंद्र सरकार ने पंचायत राज अधिनियम लोकसभा में पारित कराकर निकाय चुनाव के लिए एक बेहद मजबूत व्यवस्था कायम कर दी थी। लेकिन यह बेहद मजबूत व्यवस्था अक्सर लाचार साबित होती रही है। मसलन, 1989 के बाद दूसरा चुनाव 1995 में होना था। लेकिन तभी प्रक्रिया बाधित हो गई थी। मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट में गया था और कई बार बाधित होने के बाद आखिरकार चुनाव हो पाया था। उत्तराखंड में पहला निकाय चुनाव राज्य स्थापना के वर्ष में यानि 2000 में ही होना निर्धारित था लेकिन हुआ था 2003 में जाकर, वह भी हाई कोर्ट के आदेश पर। इस बार फिर प्रक्रिया अटक रही है। कारण हालांकि हर बार कोई न कोई होता ही है। लेकिन यह भी सच है कि हर बार बाधाओं के बीच ही सही चुनाव हुआ है। यह अलग बात है कि इस बीच निकायों का रूप खासा बदला है।
वास्तव में निकाय का बुनियादी विचार स्थानीय सरकार का है। 1972 के आखिरी बोर्ड के अधिकार क्षेत्र बेहद व्यापक और विस्तृत थे। तब तक स्कूली शिक्षा, इलेक्ट्रिसिटी, पेयजल, स्वास्थ्य, खाद्य, लोक निर्माण आदि विभाग भी निकाय प्रमुख के ही तहत काम करते थे। रुड़की नगर निगम का भवन बहुत पुराना बना हुआ है। वहां देखा जा सकता है कि शिक्षा, बिजली, जल संस्थान आदि विभागों के अधिकारियों के कार्यालय बने हुए हैं। ये सब इसीलिए हैं क्योंकि तब ये सब अधिकारी निकाय प्रमुख के ही अधिनस्थ काम करते थे। फिर व्यवस्था बदली और इन सब विभागों के लिए राज्य स्तरीय अलग अलग परिषद, निगम या बोर्ड बन गए और इन सब के लिए एक केंद्रीकृत व्यवस्था हो गई, जो सीधे राज्य सरकार के अधीन काम करती है। कमाल यह है कि यह केंद्रीयकृत व्यवस्था तब बनाई गई जब सत्ता के विकेंद्रीकरण के सबसे ज्यादा दावे किए जा रहे थे, जब लोकतंत्र को मजबूत करने और उसे निचले स्तर तक ले जाने के दावे किए जा रहे थे। बहरहाल, आज निकायों का रूप “स्थानीय सरकार” का नहीं है बल्कि निकाय हर मामले में राज्य सरकार का मुंह देखते हैं। विधायकों की मेहरबानी पर निकाय चलते हैं।