विज्ञप्तियों पर टिका पत्रकारों का कारोबार
एम हसीन
रुड़की। खबरों की भरमार है। इतनी कि अखबारों के लिए समेटना भारी है। पाठकों के लिए पढ़ना भारी है और पत्रकारों के।लिए परोसना भारी है। कहने वाले कहते हैं कि यह सकारात्मक पत्रकारिता का दौर है। वह दौर जिसमें पत्रकार को खबर लिखनी ही नहीं है। खबर उसे लिखी लिखाई मिल रही है और इतनी मिल रही हैं कि वह सारी खबरों को अपने पाठकों तक पहुंचा भी नहीं पा रहा है। और इस सारी आपा-धापी के बीच असली खबर ढूंढना भारी हो रहा है। सबसे ज्यादा लिखाड़ माने जाने वाले पत्रकार भी शायद एक दिन में कोई एक खबर लिख पा रहे हैं।
आधुनिक दौर को प्रचार का दौर कहा जा रहा है। माना जा रहा है कि जो दिख रहा है वो ही बिक रहा है। सो डिस्प्ले का दौर है। दुकानें बाहर फुटपाथ पर बल्कि सड़क पर आ गई हैं, केवल डिस्प्ले के लिए। यही मानसिकता हर जगह काम कर रही है। दिखने, दिखते रहने की प्रवृत्ति इतना बढ़ गई है कि सरकारी विभागों से लेकर निजी संस्थानों ने भी अपने जन-संपर्क विभाग खड़े कर लिए हैं, बल्कि जनसंपर्क के इस फील्ड में तमाम बड़ी कंपनियां उभर आई हैं जो अपनी सेवाएं संस्थानों को उपलब्ध करा रही हैं। देखा जाए तो यही बदलाव आया है। जन-संपर्क विभाग पहले भी होते थे। लेकिन तब उनकी काम किसी मौके पर प्रेस को आमंत्रित करना, पत्रकारों का रख-रखाव करना और पत्रकारों की आवश्यकता के हिसाब इंटरव्यूज वगैरह अरेंज करना होता था। यह उस दौर की बात है जब खबर लिखना पत्रकार का ही काम था और इसके लिए पत्रकार खुद मौके पर मौजूद रहता था, सबकुछ अपनी आंखों से देखता था, सबकुछ अपने कानों से सुनता था, तब जाकर ख़बर वजूद में आती थी। अब बदलाव आया है। अब पत्रकार को मौके पर अव्वल तो बुलाया नहीं जाता, बुलाया जाता है तो वह कुछ देखता नहीं, कुछ सुनता नहीं बस विज्ञप्ति की मांग करता है। यूं पत्रकारिता पीछे से सूचना लेकर आगे परोसने तक सीमित हो गई है। अहमियत इस बात की है कि इस प्रवृत्ति ने और अधिक विस्तार पाया है। पहले पत्रकार ख़बर लिखता था तो उसका फॉलोअप भी करता था, अपनी खबर पर व्यवस्था से लेकर समाज तक के बीच होने वाली प्रतिक्रिया पर भी नजर रखता था। अब यह जिम्मेदारी भी व्यवस्था ने अपने ऊपर ले ली है। व्यवस्था अब पत्रकार की केवल खबर ही नहीं देती बल्कि साइड स्टोरी, फॉलोअप स्टोरी भी खुद ही देती है। पत्रकार का काम उसे आगे परोसने मात्र तक सीमित रह गया है। खबरों के पाठक अगर कहीं हैं तो उनके लिए यह बात ताज्जुब की हो सकती है कि वे केवल खबर ही नहीं बल्कि फॉलोअप स्टोरी भी वही पढ़ रहे हैं जो विभाग के जन-संपर्क विभाग द्वारा परोसी जा रही है।
वैसे मेरे लिए यह आश्चर्य की बात है कि खबर से लेकर फॉलोअप स्टोरी तक पाठकों के पास पहुंचने के लिए व्यवस्था, राजनीतिक दल, सामाजिक संस्थाएं इतना तामझाम करते हैं, इतना खर्च करते हैं। कारण यह है कि खबर पढ़ने की तो अब प्रवृत्ति ही नहीं रही। यह सच हो सकता है कि समाज में शिक्षा बढ़ रही है लेकिन सच यह भी है कि पढ़ने की प्रवृत्ति खत्म हो रही है। इसी कारण मैं इस बात पर शर्त लगाने को तैयार हूं कि कहीं जागरूकता बढ़ रही है। जागरूकता तो अब सपने की बात रह गयी है। और उसका कारण यही है कि खबरों की इतनी भीड़ में दर हकीकत खबर ही कहीं खो गई है। खबरों के इस अनंत संसार में केवल एक ही चीज कहीं नजर नहीं आती और वह चीज है खबर। अब यह समाज विज्ञानियों के सोचने का विषय है कि ऐसा समाज की बदली सोच के कारण हुआ है, पत्रकारों की बदली सोच के कारण हुआ है या फिर व्यवस्था ही ऐसा चाहती है!