अभी तक वर्ग के उत्खनन में धर्म बनता रहा है पिछड़ों के खिलाफ हथियार
एम हसीन
रुड़की। केंद्र सरकार ने जाति गणना कराने की घोषणा कर दी है, अलबत्ता ऐसा कब होगा यह अभी तय नहीं है। बहरहाल, सवाल यह है कि अगर जाति गणना होती है तो क्या रुड़की नगर की सामाजिक स्थिति पर कोई असर पड़ेगा? ध्यान रहे कि बिना गणना के भी यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि रुड़की नगर में 50 प्रतिशत आबादी पिछड़ा जातियों की है और 20 प्रतिशत मुस्लिम समाज की। मजेदार बात यह है कि मुस्लिम समाज में तो 90 प्रतिशत से अधिक लोग पिछड़ी जातियों से आते हैं। इस प्रकार यहां पिछड़ी जातियों की संख्या बहुत अधिक है। इसके बावजूद यहां की संस्कृति कुछ अलग है। इसीलिए सवाल यही है कि रुड़की का समाज इससे किस रूप में प्रभावित होगा!
एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो, 1995 के निकाय चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने मास्टर रामकिशन धीमान को पिछड़ा वर्ग प्रतिनिधि के रूप में नगर पालिका अध्यक्ष पद के लिए अपना प्रत्याशी बनाकर मैदान में उतारा था। लेकिन चुनाव अभियान के दौरान सत्ती मोहल्ला चौक पर भाजपा के तत्कालीन विधायक डॉ पृथ्वी सिंह विकसित के साथ एक सभासद प्रत्याशी द्वारा की गई अभद्रता का परिणाम यह हुआ था कि चुनाव संप्रदायवाद के आधार पर विभाजित हो गया था और भाजपा के राजेश गर्ग आसान चुनाव जीत गए थे। तब उनके सामने सपा के शादीलाल लखानी पराजित हुए थे जो हालात के रौ मुसलमानों की तो टॉप रैंकिंग पर आ गए थे लेकिन अपने सजातीय पंजाबियों को नहीं लुभा पाए थे। अहम यह रहा था कि रामकिशन धीमान मुख्य मुकाबले में भी नहीं आ पाए थे। वे बुरी तरह पिछड़े थे। दूसरी बार यही डेयरिंग पिछड़ा वर्ग से आने वाले पूर्व मंत्री और पूर्व विधायक रामसिंह सैनी ने 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर मैदान में आकर की थी। तब कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में हाजी फुरकान अहमद (अब कलियर विधायक) की उपस्थिति ने एक बार फिर चुनाव को सांप्रदायिक रंग दे दिया था और रामसिंह सैनी बुरी तरह खेत रहे थे। अहम बात यह है कि यह वह दौर था जब राजनीति पर धन का, सुविधाओं का, संस्थाओं का रंग नहीं चढ़ा था। बाद में स्थितियां बदली और कॉरपोरेट का रंग राजनीति के सिर चढ़ कर बोला। यही कारण है कि 2019 के मेयर चुनाव से पूर्व पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व दिए जाने की मुहिम जब भाजपा के पिछड़ा नेताओं ने चलाई थी तो वह टांय टांय फिस रही थी। दरअसल, रुड़की का अगड़ा वर्ग, खासतौर पर वैश्य वर्ग, अपने हितों को लेकर इतना जागरूक है कि वह नगर की पिछड़ा राजनीति के वजूद को ही खत्म करने से नहीं चूकता। मिसाल इस बात की दी जा सकती है कि 2025 के निकाय चुनाव से पहले आम माना जा रहा था कि रुड़की मेयर सीट पिछड़ा वर्ग (पुरुष या महिला) के नाम जा रही है। लेकिन जब आरक्षण हुआ था तो हरिद्वार मेयर सीट पिछड़ा महिला के लिए घोषित की गई थी। रुड़की मेयर सीट सामान्य महिला के नाम दर्ज हुई थी। स्वाभाविक है कि अब मेयर अनीता ललित अग्रवाल हैं। उपरोक्त सच्चाई के बावजूद यह भी सच है कि रुड़की नगर में ही पिछड़ा वर्ग के लोगों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। मेयर के निर्वाचन क्षेत्र में तो यह प्रतिशत और भी ज्यादा हो सकती है। ऐसे में दो सवाल अहम हैं। एक, नगर या महानगर में पिछड़ा राजनीति क्यों परवान नहीं चढ़ पाती? दो, अगर देश में जाति गणना होती है तो क्या उससे रुड़की के हालात में कोई बदलाव आएगा?
जहां तक सवाल नगर में पिछड़ा वर्ग के नेतृत्व का है तो उसकी उपस्थिति यहां भरपूर रूप से देखी जा सकती है। मौजूदा जिला पंचायत अध्यक्ष किरण चौधरी, पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष चौधरी राजेंद्र सिंह, सुभाष वर्मा और पूर्व जिला पंचायत अध्यक्षा सविता चौधरी के पति अशोक चौधरी, पूर्व विधायक प्रणव सिंह चैंपियन, पूर्व झबरेड़ा नगर पंचायत अध्यक्ष चौधरी कुलवीर सिंह, पूर्व विधायक चौधरी यशवीर सिंह, रुड़की में ही निवास करते हैं। ये सभी गुर्जर बिरादरी से आते हैं जो कि पिछड़ा वर्ग की बिरादरी है। फिलहाल ये सभी एकाध को छोड़कर भाजपा की राजनीति कर रहे हैं। भाजपा की ही राज्यसभा सदस्य डॉ कल्पना सैनी, राज्यमंत्री श्यामवीर सैनी, पूर्व जिलाध्यक्ष शोभाराम प्रजापति, पूर्व महामंत्री आदेश सैनी, व्यापारी नेता अरविंद कश्यप आदि सभी लोग भाजपा की राजनीति करते हैं और रुड़की में ही रहते हैं। इनमें ऐसा कोई नहीं है जो सक्षम न हो। फिर भी नगर में पिछड़ा वर्ग की 50 प्रतिशत पिछड़ा आबादी कोई शक्ति नहीं बन पाती तो इसके दो कारण हैं। पहला यह कि ये सभी पिछड़े नेता रहते रुड़की में जरूर हैं लेकिन ये राजनीति देहात की करते हैं। मसलन, चैंपियन को खानपुर में और श्यामवीर सैनी को कलियर में भाजपा टिकट चाहिए। इसी प्रकार चौधरी राजेंद्र सिंह को जिला पंचायत की राजनीति के लिए पार्टी का आशीर्वाद चाहिए। शोभाराम प्रजापति, अशोक चौधरी और अरविंद कश्यप ने अपने लिए पार्टी के मेयर टिकट का सपना जरूर देखा था लेकिन इसके लिए उन्होंने कोई संघर्ष नहीं किया, कोई लड़ाई नहीं लड़ी। दूसरा कारण यह है पिछड़ा वर्ग के अधिकांश चेहरे अपने-आपको पिछड़ा वर्ग के रूप में नहीं बल्कि पिछड़ी जाति के रूप में देखते हैं। यहां सैनी बिरादरी के लोग खुद को गुर्जरों के साथ सहज महसूस नहीं करते। इसी प्रकार पाल समाज के लोग धीमान समाज के साथ, प्रजापति समाज के लोग जाट समाज के साथ सहज महसूस नहीं करते। कमाल यह है कि ये सब पिछड़ा बिरादरियां अगड़े वर्ग की ब्राह्मण बिरादरी के साथ भी उतना सहज महसूस नहीं करती जितना बनिया, राजपूत या पंजाबी के साथ महसूस करती हैं। वैसे भी रुड़की में आमतौर पर राजनीति खुद कुछ बनने की नहीं होती बल्कि किसी दूसरे को कुछ बनाने या दूसरे का कुछ बिगाड़ने की होती है।
लेकिन नगर या महानगर में पिछड़ा प्रभावहीनता का सबसे बड़ा कारण यह है कि एक भी पिछड़ा पदाधिकारी या कार्यकर्ता का रुड़की में अपने समाज पर प्रभाव नहीं है। नगर की सभी पिछड़ा जातियां, यथा, सैनी, प्रजापति, पाल, धीमान और गुर्जर आदि अपने कारोबार या पेशे के ऐतबार से अगड़ा वर्गों से इस प्रकार जुड़ी हैं कि वे चाहें भी तो खुद को इससे अलग नहीं कर सकती। मसलन, कोई पिछड़ा हलवाई या पिछड़ा डॉक्टर या पिछड़ा इंजीनियर या पिछड़ा आर्किटेक्ट या पिछड़ा उद्योगपति अपनी जाति के तत्व को उजागर करके अपने धंधे या उस सम्मान को नहीं खोना चाहता जो उसे किसी संस्था के अध्यक्ष या निदेशक या संयोजक या संरक्षक के रूप में मिला हुआ है। अन्य शब्दों में कहें तो नगर का औसत पिछड़ा व्यक्ति इतनी दिलचस्पी अपनी बिरादरी का मेयर या विधायक बनाने में नहीं रखता जितना खुद के रोटरी या लायंस क्लब का अध्यक्ष बनने में लेता है, स्मॉल स्केल इंडस्ट्री या इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का अध्यक्ष बनने में लेता है। और अंत में नकदीकरण तो राजनीति का सच बन ही गया हुआ है, जिसे नगर विधायक प्रदीप बत्रा “ट्रेंड” बता चुके हैं। कहने का मतलब यह है कि जाति गणना का रुड़की के समाज पर कोई प्रभाव पड़ेगा, ऐसा लगता नहीं।