लेकिन बहुत फ्रुटफुल साबित नहीं होती जातीयता की राजनीति

एम हसीन

रुड़की। निकाय चुनाव की तैयारियां जारी हैं और उसी क्रम में टिकटों पर भी लोगों की दावेदारी जारी है। दावेदारी में सबसे मजबूत आधार जाति बन रही है जो कि स्वाभाविक है। जाहिर है कि टिकट पर दावेदारी का आधार या तो साधनसंपन्नता और जाति हो सकती है या फिर समाज के बीच किया गया काम। अब चूंकि सब दावेदारों के पास काम का आधार नहीं है, इसलिए जातीयता का महत्व बढ़ना लाजमी है। अहम यह है कि जातीयता का विरोध करने वाली भारतीय जनता पार्टी में भी दावेदारों का टिकट पर दावा जातीय आधार पर ही है।

बहरहाल, राजनीति में, संस्थागत राजनीति में, चुनावी राजनीति में जाति का कितना महत्व होता है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। सच यह है कि अगर किसी के पास जाति का कार्ड नहीं है तो अव्वल तो उसे टिकट ही नहीं मिलता; मिल भी जाए तो उसकी जीत आसान नहीं होती। 2022 के विधासभा चुनाव में रुड़की में कांग्रेस के यशपाल राणा महज इसलिए चुनाव हार गए थे क्योंकि उनका अपना जातिगत आधार कुछ नहीं था। अगर कुछ हजार राजपूत वोट रुड़की में होते तो राणा विधायक बन गए होते; ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 2022 में भी भाजपा के प्रदीप बत्रा विधायक बन ही गए थे। उस चुनाव में हुआ तो यह भी था कि बत्रा को भाजपा का एक बहुत बड़ा धड़ा वोट दे ही नहीं रहा था, उसने दिया भी नहीं था। लेकिन भाजपा और प्रदीप बत्रा को छोड़कर जिस प्रकार अन्य जातियों के लोगों ने कांग्रेस को और यशपाल राणा को वोट देने के लिए अपना मन पक्का कर लिया था उस प्रकार पंजाबी समुदाय बत्रा का विरोध करने के लिए मन पक्का नहीं कर पाया था। और तो और, चुनाव से पहले प्रदीप बत्रा के साथ सीधे संघर्ष कर रहे कुछ गैर राजनीतिक पंजाबियों ने भी अपने प्रभाव में रहने वाला लेकिन पार्टी के हिसाब से यशपाल राणा को जाने वाला काफी वोट यूं खराब करा दिया था कि उसे नोटा पर भेज दिया था। पंजाबी की सोच इसी पुरानी भारतीय कहावत पर ठहरी रही थी कि “अपना अगर मारेगा भी तो कम से कम छांव में डालेगा।” नतीजा प्रदीप बत्रा चुनाव जीत गए थे। लेकिन जातीय राजनीति का क्या चुनाव के बाद भी यही असर कायम रहता है? इसकी एक और लोमहर्षक मिसाल भी रुड़की में ही, हाल ही में, देखी गई थी।

इतिहास गवाह है कि 2019 में भाजपा ने वैश्य बंधु मयंक गुप्ता को अपना टिकट देकर मेयर चुनाव लड़ाना तय किया था और उनका चुनाव प्रभारी वरिष्ठ पार्टी नेता अनिल गोयल को बनाया था। और मयंक गुप्ता भला किसके सामने चुनाव हारे थे? वे अपनी ही बिरादरी के गौरव गोयल के सामने चुनाव हारे थे। वह गौरव गोयल थे जो तब भाजपा के बागी के रूप में चुनाव लड़े थे। तब मयंक गुप्ता और अनिल गोयल दोनों ही गौरव गोयल को बगावत न करने, चुनाव न लड़ने के लिए तैयार नहीं कर पाए थे; न ही बनिया मतदाता को इस बात के लिए तैयार कर पाए थे कि वे दूसरे बनिया प्रत्याशी, मुख्यधारा के प्रत्याशी, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के प्रत्याशी, उत्तराखंड और केंद्र दोनों स्थानों पर सत्तारूढ पार्टी के प्रत्याशी, नरेंद्र मोदी जी की भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी मयंक गुप्ता को वोट दें। नतीजा यह हुआ था कि मयंक गुप्ता गौरव गोयल के मुकाबले करीब 10 हजार वोटों के अंतर से चुनाव हार गए थे। शुरू में यह माना गया था कि यह वैश्यों का रणनीतिक निर्णय था। उन्होंने पार्टी के एक वैश्य के सामने दूसरे वैश्य को बागी के रूप में इसलिए लड़ाया था ताकि जीत हार हाल में वैश्य बंधु की ही हो। लेकिन बाद के हालात ने इस सोच को गलत साबित किया।

मसलन, अपने मेयर कार्यकाल में जिस एक व्यक्ति को गौरव गोयल ने जेल भिजवाया था वह उन्हीं की बिरादरी का, नीरज गोयल, है। अब नीरज गोयल जेल से बाहर है लेकिन शायद मुकद्दमा चल रहा है। साथ ही जिस एक आदमी के कारण खुद गौरव गोयल बेहद खराब अंजाम तक पहुंचने से बाल बाल बच गए थे और महज साढ़े तीन साल में ही पद छोड़ने के एक बेहद विडंबनापूर्ण अंजाम तक पहुंचे थे, वह, सुबोध गुप्ता, भी गौरव गोयल की ही बिरादरी का, वैश्य बंधु ही, है। एक मामले में सुबोध गुप्ता का गौरव गोयल के खिलाफ केस खारिज हो गया है यह गौरव गोयल ने ही हाल में मीडिया को बताया था लेकिन दूसरा केस अभी हाई कोर्ट में जारी है। सवाल यह है कि उपरोक्त उदाहरण कौन से जातीय समन्वय की मिसाल कायम करता है? विचारणीय प्रश्न है। जातीय आधार पर टिकट या पद पर दावा करने वाले लोगों के लिए अहमियत इस बात की है कि अगर वे जातीयता की प्राचीन परंपरा का पालन करना ही चाहते हैं तो उसे आधुनिकता का, अंग्रेजियत का छौंक लगाकर काम नहीं चलाया जा सकता। अगर लाला उग्रसेन गुप्ता, त्रिलोकीनाथ अग्रवाल आदि की तरह अपने पक्ष में अपनी जाति को कैश करने की किसी मंशा हो ही तो उन्हें काम करने के तरीके भी वही अपनाने होंगे जो ये लोग अपनाने थे। उन तरीकों में अव्वल है अपनी जाति के भीतर समन्वय कायम करना होता है और फिर जीतने के बाद समावेशी सोच के तहत काम, इस प्रकार कि भले ही काम दूसरे लोगों के लिए हो रहा हो लेकिन उनकी अपनी बिरादरी को उस पर आपत्ति न हो, करना होता है। सवाल यह है कि मौजूदा दावेदारों में कितनों के नाम पर उनके जातीय समाज में ही समन्वय है?