सोचें कि अंतिम लक्ष्य की दिशा में कितना आगे बढ़े हम! – एम हसीन

यह अनुभव हमें आज़ादी के अमृतकाल में ऐन 78वाँ स्वाधीनता दिवस मनाने से पहले हुआ जब देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति प्रधानमंत्री ने संसद से बाहर निकलकर आरोप लगाया कि “संसद के भीतर उन्हें ढाई घंटे तक बोलने नहीं दिया गया। उनका गला घोंटा गया।” हो सकता है कि प्रधानमंत्री भावनाओं के अतिरेक में कुछ ज्यादा बोल गए हों, लेकिन यह सोचा जाना जरूरी है कि क्या उन्होंने गलत बोला था, क्या बिलकुल बेबुनियाद बात कही थी? प्रधानमंत्री अगर सत्य भाषण कर रहे थे तो भी और अगर मिथ्या आरोप लगा रहे थे तो भी यह अपने आप में इस बात का एक बेहद लोमहर्षक, बेहद विडंबनापूर्ण उदाहरण है जो इस प्रश्न को जन्म देने के लिए काफी है कि स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद हमने जो अंतिम लक्ष्य निर्धारित किया था उसकी दिशा में हम कितना आगे बढ़े हैं!

फिल्में समाज का दर्पण होती हैं यह पुरानी धारणा है। लेकिन मैं इस पर प्रश्न चिह्न लगाना चाहता हूं। मेरा विचार यह है कि फिल्में हमें वह नहीं दिखाती जो समाज में हो रहा है। इसके विपरीत फिल्में हमें वह दिखाती हैं जो समाज से, हर व्यक्ति से सामूहिक रूप से, सामाजिक रूप से अपेक्षित होता है। एक दौर रहा है जब देश में फिल्मों का उपयोग सत्ता व्यवस्था को एक नई दिशा देने के लिए किया गया। इसी कड़ी में मैं कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी “नायक।” इस फिल्म के “नायक” का “नायकतत्व” किसी बड़ी उपलब्धि से तय नहीं हुआ था; क्योंकि बड़ी उपलब्धि की दिशा में तो नायक केवल एक कदम आगे बढ़ा था, उसने केवल राजनीति में शामिल होकर चुनाव लड़ने और जीत कर अपनी सरकार बनाने मात्र तक की उपलब्धि हासिल की थी। अपनी सरकार बनाने के बाद उसने कोई अन्य उपलब्धि प्राप्त कर ली हो, इस बिंदु तक तो फिल्म पहुंची ही नहीं थी। कोई फिल्म पहुंचती भी नहीं। अहमियत वास्तव में उसके लक्ष्य की थी जो “नायक” ने अपनी सरकार के लिए तय किया था। उसने हर गली गांव में एक शिकायत पेटी लगवाई थी जिस के माध्यम उसने अपनी सरकार के प्रति जनता के फीड बैक को हासिल करने का लक्ष्य तय किया था और अपेक्षा की थी कि एक दिन ऐसा आयेगा जब उस पेटी में कोई शिकायत नहीं होगी; अर्थात जनता पूरे तौर पर संतुष्ट होगी।

अर्थात, स्वाधीनता का अंतिम लक्ष्य व्यक्ति की संतुष्टि का है और इस दिशा में हम कितना आगे बढ़े हैं इसी का प्रमाण प्रधानमंत्री का उपरोक्त वक्तव्य है जो उन्होंने अपनी तीसरी सरकार के प्रथम संसद सत्र के दौरान दिया था। कहने को कहा जा सकता है कि वे अनर्गल आरोप लगा रहे हैं, लेकिन आरोप लगाने से पहले हर व्यक्ति अपने आप से सवाल पूछ सकता है कि क्या वह पूर्णत: लोकतांत्रिक तरीके से, पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को जी रहा है? अपने अपेक्षित दायित्वों का पालन कर पा रहा है? इस मामले में एक और फिल्म का उदाहरण देना चाहता हूं जिसका नाम है “गंगाजल।” और जिसमें एक आपराधिक माफिया के खिलाफ संघर्ष छेड़ने वाला पुलिस का एक एस पी अपने ही इमिडिएट बॉस डी आई जी और अपने ही इमिडिएट सब ऑर्डिनेट सी ओ की माफिया के पक्ष में या उनके अपने हित में जुगलबंदी का कदम कदम पर शिकार होता है। फिल्म यह भी दिखाती है कि राजनीति किस प्रकार यथा स्थितिवाद को बढ़ावा देकर अपना अस्तित्व कायम रखने को प्राथमिकता देती है।

दरअसल, सवाल उन आवश्यकताओं का है जो स्वाधीनता से अपेक्षित हैं और सवाल उन लक्ष्यों का है जो निर्धारित किए जाते हैं। मसलन, लक्ष्य तय किया गया “गरीबी हटाओ।” सवाल यह है कि क्या कभी कोई शासक गरीबी हटा सका था? क्या राजा विक्रमसित्य या सम्राट अशोक या चंद्रगुप्त के दौर में गरीब नहीं थे? ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा इसलिए नहीं है कि गरीबी कोई लानत नहीं है बल्कि गरीबी एक व्यवस्था है, एक आवश्यकता है समाज के ढांचे को कायम रखने के लिए। गरीबी खत्म करने की दिशा में जितना भी कोई बढ़ने की कोशिश करेगा गरीबी उतना ही बढ़ती चली जायेगी। जब औद्योगिक क्रांति से गरीबी हटाने का लक्ष्य तय किया गया था, मशीनों को श्रम के विकल्प के रूप में अपनाया गया था तब कितनी गरीबी कम हुई अध्ययन किया जा सकता है। अब फिर नई तकनीक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ रही है। गरीबी को कितना कम करेगी समय बता ही देगा। बहरहाल, मेरी निगाह में जब भी “गरीबी हटाओ” का नारा लगाया जाता है तो जनता को गुमराह किया जाता है। इसे और अधिक बारीकी से देखना हो तो “राम राज्य” के विचार के तहत देखा जा सकता है। मेरी कल्पना काम करती है तो सवाल उठते चले जाते हैं। जब राम राज्य कायम हो जायेगा तो क्या होगा? समाज का हर नागरिक समृद्ध होगा, किसी की किसी पर कोई निर्भरता नहीं होगी, होगी तो केवल व्यवसायिक होगी, किसान की बनिए से केवल इतनी निस्बत होगी कि बनिया उसकी पैदावार खरीदेगा। बनिए की डॉक्टर से केवल इतनी अपेक्षा होगी कि वह उसके स्वास्थ्य का ध्यान रखेगा, इंजीनियर से केवल इतनी अपेक्षा होगी कि वह किसान का, बनिए का और डॉक्टर का मकान मात्र बनाएगा! बस सब समृद्ध होंगे और अपने आप में मग्न होंगे। अगर यही राम राज्य होगा तो यह तो डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकारों में आ गया था। डॉक्टर मनमोहन सिंह के तो विरोधी भी मानते हैं कि उनका कार्यकाल अर्थ सपन्नता के दृष्टिकोण से आदर्श था, कि उस दौर में गरीब भी निवेशक हो गया था। लेकिन यह भी सच है कि डा मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ सालों आंदोलन चला था, इतना व्यापक चला था कि आखिरकार सत्ता परिवर्तन हुआ था। बाद में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो काफी हद तक यह संदेश भी गया कि व्यवस्था भी परिवर्तित हो रही है। लेकिन हुआ क्या? 10 साल की सत्ता संभालने के बाद जब नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार सत्ता संभाली तो उन्होंने उपरोक्त वक्तव्य दिया। क्या समझा जाए? इस प्रश्न पर मैं अगले लेख में चर्चा करूंगा।

पाठकों की रुचि के अनुरूप मैं यह निर्णय लूंगा कि इस ब्लॉग को आगे बढ़ाऊं या नहीं! पाठक चाहेंगे तो स्थानीय खबरों और विश्लेषणों के बीच मैं गंभीर लेखन का यह क्रम भी जारी रखूंगा।