एम हसीन
रुड़की। एक दौर था जब मंगलौर के कांग्रेसी कुंवर जावेद इकबाल ने इस बात पर विचार किया था कि वे अपने पूर्व नगर पालिका परिषद अध्यक्ष पिता अब्दुल हमीद सर्राफ के सामाजिक, आर्थिक वारिस होने के साथ साथ राजनीतिक वारिस भी बन सकते हैं। 2013 का नगर पालिका चुनाव उनकी उम्मीदों का चरम था, जब विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कांग्रेस की गठबंधन सरकार थी और विजय बहुगुणा ने उनकी पत्नी को योजना आयोग में सदस्य बनाकर उनकी उम्मीदों को बढ़ावा भी दिया था। लेकिन बात बन नहीं पाई थी। कांग्रेस ने खलील अहमद को टिकट दे दिया था और विधायक क़ाज़ी निजामुद्दीन ने खामोशी के साथ हाजी इस्लाम को निर्दलीय चेयरमैन बना दिया था। इसके बाद राजनीति में इतना ठहराव आया हुआ है कि बात हाजी इस्लाम बनाम डा शमशाद से आगे नहीं बढ़ती। अभी तक के हालात ऐसे ही हैं। इसके दौर में बेशक कुंवर जावेद इकबाल ने भी खुद को बदला और वक्त की जरूरत के मुताबिक पैसा कमाने के अलावा वे पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने तक महदूद हो गए, दिखाई दिए। अलबत्ता आम पार्टी देने और इसके माध्यम से अपने राजनीतिक रिश्तों को रिवाइव करते रहने का उनका शौक अब भी बरकरार दिखाई देता है। साथ ही, उनकी कोशिशें, खासतौर पर विजय बहुगुणा के भाजपा गमन कर जाने के बाद, अपनी पार्टी में हरीश रावत को भी बुलाने की रहती ही है। जब हरीश रावत सड़क पर संघर्ष कर रहे होते हैं तब वे उनके बुलावे पर आ भी जाते हैं। जैसे पिछले दिनों आए।
इस बार यह भी उल्लेखनीय रहा कि कुंवर जावेद इकबाल की पार्टी में मंगलौर के नव निर्वाचित विधायक क़ाज़ी निजामुद्दीन भी आए। उप चुनाव से पूर्व मुझे महानगर कांग्रेस अध्यक्ष एडवोकेट राजेंद्र चौधरी ने बताया था कि “उन्होंने कुंवर जावेद इकबाल का क़ाज़ी निज़ामुद्दीन से हाथ मिलवा दिया है।” अर्थात पहले दोनों के बीच फासले थे। इसलिए यह भी माना जा सकता है कि आम पार्टी के माध्यम से कुंवर जावेद इकबाल ने क़ाज़ी निजामुद्दीन के साथ विकसित हुए अपने रिश्तों को सार्वजनिक किया। हालांकि उन्होंने अपनी फेस बुक वाल पर कोई ऐसा फोटो नहीं लगाया है। क़ाज़ी निजामुद्दीन की वाल पर भी ऐसा कोई फोटो दिखाई नहीं दिया। बहरहाल, ऐसा नहीं लगता कि इस आयोजन और इसमें हरीश रावत और क़ाज़ी निजामुद्दीन को एक साथ बुलाने के पीछे कुंवर जावेद इकबाल की मंशा नगर पालिका अध्यक्ष पद का अपने लिए कांग्रेस का टिकट जुगाडना था। अलबत्ता एक बड़ा मकसद हो सकता है। वह यह कि वे हरीश रावत और क़ाज़ी निजामुद्दीन के बीच खुद को लाइजनर के रूप में पेश करें। यह सुनिश्चित करने का यश लें कि 2027 में जब कांग्रेस सत्ता में आए, “ऐसा दावा खुद हरीश रावत ने मीडिया के बीच किया।”, तब क़ाज़ी निजामुद्दीन उन्हें अर्थात हरीश रावत को ही मुख्यमंत्री बनाएं और हरीश रावत भी उन्हें अर्थात क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को अपनी सरकार में मंत्री बनाएं। मैं नहीं कहता कि ऐसी किसी लाइजनिंग की किसी को जरूरत है। आखिर हाल के उप चुनाव में हरीश रावत ने काज़ी निजामुद्दीन के लिए दिन रात एक किया ही था। इससे पहले क़ाज़ी निजामुद्दीन ने भी लोकसभा चुनाव में हरीश रावत के कांग्रेस प्रत्याशी पुत्र वीरेंद्र रावत को अपनी सीट पर 23 हजार वोटों के अंतर से विजयी बनाकर भेजा था। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि दोनों बड़े कांग्रेसियों के संबंधों में कोई गर्माहट नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि समर्थक अपना काम करते ही हैं।
बस अहमियत इस बात की है कि उत्तराखंड में कांग्रेस के कदम जब भी सत्ता की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं, क़ाज़ी निजामुद्दीन अपना व्यतिगत चुनाव हार जाते हैं। ऐसा ही 2012 में हुआ था और ऐसा ही 2022 में। अब 2024 का उप चुनाव क़ाज़ी निजामुद्दीन जीत गए। जाहिर है कि उनका विधायक का रुतबा तो बरकरार है। लेकिन उनके मंत्री बनने की तो 2027 तक कोई संभावना नहीं है न। ऐसे में कुंवर जावेद इकबाल ने आम पार्टी के बहाने हरीश रावत और क़ाज़ी निज़ामुद्दीन को सांझा मंच उपलब्ध कराकर तो ठीक ही किया। इस पार्टी में काटकर या छीलकर या चूसकर आम भी खूब खाए गए। सवाल यह है कि उनकी मिठास क्या 2027 तक कायम रहेगी? हालांकि 2027 तक कई आम पार्टी दिए जाने के अवसर आयेंगे और कुंवर जावेद इकबाल तो हर साल ही आम पार्टी देते हैं।